बौद्ध - धर्म के २५०० वर्ष | Boddh Dharm Ke 2500 Varsh
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
285
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भूमिका १९
अपना भविष्य निर्णीत कर सकता है, अहत बन सकता है, निर्वाण प्राप्त कर सकता
है। बुद्ध कदोर जीवन का पक्का प्रचारक था। हमारा आदश हैं काज् पर विजय
प्राप्त करना, संसार-सागर को पार करना और यह कार्य उस नेतिक माग पर चलने
से हो सकता दै जिससे प्रकाश प्राप्त होता है ।
बुद्ध एक अपरिवर्तेनीय आत्मन् की सत्ता को नहीं मातता, क्योंकि आत्मन् ऐसी
चीज़ दे जो कि अच्छे विचारों और कर्मो से बनाई जा सकती है फिर भी उसे आत्मन् को
मानकर ही चलना पड़ता है । जब कि कम, वस्तु जगत, अस्तित्व जगत चौर कालसापेष
जगत से सम्बद्ध दे, निर्वाण आत्स की, अन्ततम की मुक्ति का रूप अहया करता है हम
अपने अस्तित्व की सीमाओं से बाहर, भ्रक्नग, स्थित हो सकते हैं। दें उस घूल्य का,
जगत की सारता का अनुभव होता हे, तभी हम उससे परे जा सकेगे ।
वस्तुनिष्ठ अस्सित्व से बाहर स्थित होने का अथ दे कि प्रत्येक ब्यक्ति को पक प्रकार की
सूखी पर चढ़ने, पीढ़ादायक सर्वनाश तथा परिवर्तन और মৃত্যু कै
नियमों से चालित समस्त इंड्रियसंवेश अस्तित्व की कट्ठु शूल्यता का अनुभव
होना : मरणान्तम् हि जीबितम् । हम घोर निराशा की गहराई ले पुकारते हैं :
रूत्योमास्तंगमय । इस रूत्यु के शरीर से मुझे कौन बचायेगा ! यदि
रत्यु सब कुछ नहीं हे, यदि शुल्यता सब कुछ नहीं है, तो झत्यु के
बाद कुछ दे जो जीवित रहता है, यद्यपि वह वर्णनातीत दै। यद्द “आत्मनू!
निरपेज्ञ दे. तथा शरीर, संवेदना, इंद्रियबोध, संस्कार, विचार इत्यादि सब अस्थिर,
परिवतनीय और तस्वद्दीन चीज़ों से परे है । जब ब्यक्ति यह जान जाता दे कि जो कुछ
अस्थिर दे वद्द दुखद है, तज वह उसके विरक्त हो जाता है ओर मुक्त हो जाता है । इससे
पदल्ले यह अनिवाय देँ कि “आप्मन! को कोई उच्चतर चेतना या ऐसी ही कोई
अनुभूति दो: “अत्तन वा भ्त्तनीयेन!?* । यह आस्मन् ही झादिम मौज्षिक “स्व!
है, जो निरपेक्ष है, जिसका ज्ञान हमे बन्धन -सुक्ति भौर शक्ति देवा दै । यह “स्व, न
तो शरीर है, न संवेदना, न चेतना इत्यादि । परन्तु इषस यह निष्कषं नही निकलता
४ प्माष्म-ततत्व है ही नी । “झात्मन! या स्वः का एक भाव-तस्व अहंकार ही
नहीं है, यद्यपि यद्दी एक तत्त्व है जो बाह्य रूप से जाना जा सकता है। हमारे
আম का एक दूसरा पहलू दे, जो हमें निर्वाश-प्राप्ति में सहायक होता है ! बुद्ध जब हमें
परिश्रमशील होने को कहता दै, निर्वाण के निमित्त प्रयस्न करने क लिप् कवा है,
तब वद्द उस आल्तरिक तत्त्व की ओर निर्देश कर रहद्दा है, जो घटनाओं के प्रवाह
३. मज्फिय-निकाय, २६ ।
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