धर्मामृत (अनगार) | Dharmamrat (Angaar)
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
39 MB
कुल पष्ठ :
779
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रस्तावनां २१
है । श्वे, साधु वस्वके सिवाय भो कम्बल, पात्र, पायपुंछन मादि अनेक उपकरण रखते है । दि. साहित्ये
इन सबकी कोई चर्चा नही हे क्योंकि दि, साधुके लिए ये सब अनावश्यक हैं ।
इवे. साधु श्रावकोते पीठफरुक, तस्ता, चटाई आदि उवयोगके लिए रेते ह । उपयोग होने पर खछौटा
देते हैं। उनमें मी शयमके लिए घास, पत्थर या लकड़ीका तख्ता श्रेष्ठ कहा है । साधुको घास पर अच्छी
तरह जीव जन््तु देखकर ही सावधानीसे इस तरह लेटना चाहिए कि किसी दूसरेसे अंग स्पर्श न हो ।
आवश्यकता होने पर साधु सुई, उस्तरा, नखच्छेदनी तथा कान सलाईका भी उपयोग करता है किन्तु छता
जूता वर्जित है ।
भिक्षा ओर भोजन
माधुको सर्योदयसे तीन घडोके पश्चात् और सूर्यास्तसे तीन घडी पहले भोजन कर छेना चाहिए |
छियालीम दोष रहित और नवकोटिसे विशुद्ध आहार हो ग्राह्म होता है कहा है-
णवकोडिपरिमुद्धं असणं बादालदोसपरिहीणं ।
संजोयणाय हीणं वमाणसाहयं विहिसुदिण्ण ॥ --मृखाचार ६।६३ ॥
श्वे. सायु मी भिक्षाके उचित समय पर মিলান लिए जात) है। वह साथमे किसी श्रावकं वगैरहुको
नही रखता ओौर चार् हाय भगे देखकर सावतानता पूर्वक जाता ह । यदि मूसलाषार वृष्टि होती हो, गहरा
कोहरा छाया हो, जोरकी आंपषी हौ, हवा जन्तुभोका बाहूल्य हो तो साधुको भिक्षाके लिए जानेका निषेध
है । उसे एसे समयम भी नहीं ज्यना चाहिए जब भोजन तेंयार न हो या भोजनका समय बीत चुका हो । उसे
ऐसे मार्गसे जाना चाहिए जिसपर कोचड, जावजन्तु, जंगली जानवर, गढ़े, नाछा, पुछ, गोबर वगैरह न हो ।
वेश्यावाट, अधिकारियोके निवास, तथा राजप्रासाद वर्जित है। उसे अपना भिक्षा भ्रमण प्रारम्भ करनसे पहले
अपने सम्बन्धियोके घर नहीं जाता चाहिए । इससे स्पेशल भोजतकी व्यवस्था हो सकती है। यदि घरका द्वार
बन्द हो तो उसे न तो खोलना चाहिए और न उसमे से झाकना चाहिए ।
सूत्रकृतांगसूत्र में यद्यपि भोजनके छियालीस दोषोका निर्देश हैं किन्तु किसी भी अंग या मूल सूत्रमें
उनका ब्योरेवार एकत्र वर्णन नहीं मिलता जेसा मूलाचारमें मिलता है 1
भिक्षा लेकर लौटने पर उसे गुरुको दिखाना चाहिए और पूछना चाहिए कि किसीको भोजनकी
आवध्यकता है क्या । हो तो उसे देकर शेष स्वयं खा लेना चाहिए। यदि साधुको भूख लगी हो तो एकान्त
स्थानमें किसी दीवारकी ओटमे स्थानके स्वामीसे आज्ञा लेकर भोजन कर सकता हैं। यदि एक बार धूमने
पर पर्याप्त मोजब न मिछे तो दूसरा चक्कर लगा सकता ह ।
साधुकै लिए भोजनका परिमाण बत्तोस ग्रास कहा हैँ। और प्रासका परिमाण मुर्गीके अण्डेके बराबर
बहा है। साधुको अपने उदरका आधा भाग अन्नसे, चतुर्थ भाग जलसे ओर चतुर्थ भाग वायुसे भरना चाहिए ।
अर्थात भूखसे आधा खाता चाहिए |
दवे, साधु गृहस्थके पात्रका उपयोग नहीं कर सकता । उसे अपने भिक्षा पात्रे ही भोजन लेना
चाहिए । जब भोजन करे तो भोजनको स्वादिष्ट बनानेके लिए विविध व्यंजनोको मिलानेका प्रयत्न न करे ।
और न केवल स्वादिष्ट भोजन ही ग्रहण करे | उसे क्रिसी विशेष भोजनका इच्छुक भी नहीं होना चाहिए ।
इस तरह पाणि भोजन और पात्र भोजनक्े सिवाय दोनों परम्पराओंमें भोजनके अन्य नियमोंमें विशेष
अन्तर महों है। नवकोटि परिशुद्ध, दस दोष रहित और उद्गम उत्पादन एषणा परिशुद्ध भोजन हो जैन
साधुके लिए ग्राह्म कहा है ।
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