मधु | Madhu

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Madhu by यज्ञदत्त शर्मा - Yagyadat Shrma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १३ > राजन के व्यक्तित्व में लेखक ने इन्सानी नरमाई और इस्पात्ती दोनों बृतियों का आदर्श उपस्थित क्रिया है | दुली के प्रति स्वाभाविक झाद्ग ता और सहायता करवा उसका जैसे धर्म बन गया हे | तमी तो बह यद्द कहने का साहस कर सकता है, पुजारी होते हुए भी,--“मधु ! में तुम्हें अपना चुका हूँ । तुम्हारे हृदय में कोई रहस्य हे जिसे छुपाने के लिए तुम पगली चन रही हो । में सानवधादी व्यक्ति हूँ । संसार का कोई भी प्रतिबन्ध मेरे मार्ग को अवरुद्ध नहीं कर सकता । जिसे में ठीक सकझ्तता हूँ उसके मार्ग में यदि स्वयेँ भगवान्‌ भी आकर खड़े हो जायें तो में उन्हें भी पत्थर का हुकड़ा समझकर ढुकरा दूँगा ।” (पृष्ठ ५०) ओर मधु अपने को साधना का साधन? बनने देने में तो सम्तुष्ट है पर कातर है प्रकट करते समय क्योंकि उसके अंतसतम में समाज के कोप की आशंका हैं---वेश्या प्रेम करे--पुजारी के बेटे से प्रेम ! और राजन के समभाने पर भी कि 'आज के समाज का ढाँचा -.. . .निर्जीब हो चुका है! उसका डर कम हीं दोता | परन्तु उसकी बल और परखने की बात से मधु को आशा बंधती है | ओर मधु में आयाचित चपलता आा जाती है। साथ ही शंका दामन पकड़े रहती है । विश्वास और शक्ति के नए संचय से मधु की जीत को बड़ी स्वाभाविकता से दिखाया है | ओर राजन के पात्र में जो अदम्यशक्ति, मानव-प्रेम और समाज के गल्ले सड़े अ्रंगों को निमू ल करके नए स्वस्थ समाज के निर्माण करने की क्रिया त्म- केता है, वड इसमें प्रेरणा देती है | राजन स्वयँ कहता है--




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