चरित्रपाहुड प्रवचन | Charitrapahud Pravachan
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
108
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)शाथा ६-7 1 हु
सम्यवरत्व है औरः उससे वृत्ति क्या बन रहो है ? “उसकी छोर देयो, नो! वह ,ग्राचरण 'है,
क्योकि प्रति शर्का शादि दोपोका त्याग ने बने तो, अपने 'आ्रात्माका आचजण नही-हो>सकृता -।
जिनेन्द्र देवने ज्ो।वस्तुका स्वरूण कहा।उसमें जोनजो अचुभव !गम्य[त्ीजें है वेइस,,ज्ञानीके श्रनु-
'भवमे उत्तरी हैं'यौर उससे जिनेन्द्रवचनमे उसको हढ श्रद्धा हुई है: और ,ऐसी-हढ: श्र द्धा--हुई, है
कि जो कुछ परोक्षभरूर्त- बातोका वर्णन है; रवर्ग, त्रक;/विमानोकी सख्या; व्विप्लानोको उ्ेत फल
दनियाक्नी जगहोका वर्णंन'जो-जो भी वर्शन प्राया है उसपर শ্বালীলী।ছুযা,গুভা- हुई- है,क्योकि
अनुभव गम्य तृत्वमे ऐसी हृढ श्रद्धा हुई कि-इसके -बत्ताने,, वानर जिनेन्द्र देवःधृगं-सत्य है, पूणं
प्रामाणिक हैं, उनमे किसी तरहकी शका:ही-तही है'। अ्रतएवं जिनागममे ,जो कुछ कहा गया
'है वह सब निर्दोषः क्रथनं है, उषमे सशय नही है, एेमी णकाक -निचृत्ति है । {+ = +
४(१४ ) ,सम्यक्त्वाचरणसे निःकाक्षता--सम्यवत्वान्न रणमे भोगः, भोगनेकी श्रश्निल्लाषा
सम्यश्दृष्टिके सही रहेती । यद्यपि “चारित्रमो हुक : उदयसे ज्ञानी भी-किसी,पदवीमे ,सोगोमे, लुगता
है, पर उसका भीतरीण्भाव आ्ान्त्रिक श्राशयःतही लगता-॥ ,यहू भीहएक आश्चयैंको बात है
कि मोग .मोगंना भी पड रहा प्रौर भोतरमे परद्धतावा भी कर।रहा।, इन।दो धाराग्रोका
समम इस ज्ात्तीके-चल रहा टै । त्रिरक्ति भीं चल.रही हि आर अवृत्ति भी লব 1
जैसे किसी को! मदिरी पीनेकी जरा/भी आदत नही है, न। कभी » पी, है, दूर रहता है शोर. दूर
रहना ही चाहिए, ेसा- उसकरा-सकाल्प' है.फिर भी-किसी, रगे मस्त होनेपर, „कुटुम्बी, जनो
द्वारा किसी देवामे मविराकाः सयोग करके, पिलाया जाय; तो [उसे, बेहोशी नही भ्राती +.एक
गी वहु दवाकर साथै, दुसरे मदिरासे वह् विरक्त है तो-इसका भी, श्रन्तर पड़ता है, कि
নিহলল ভীনজ্তঅল্কা मद- न-+चढ़ ।1कभी,थोडा, अन्तर यह देखा जाता कि. कोई. बेहोश करने
वाली तीज पी ली किसी 'परिस्थितिमे जबरदस्ती. झोर अपने' ज्ञानक़ी , ओर दृष्टि बनाय हहे
कि मैं तो स्वच्छ॑ज्ञांनमूति 'हुऔर उससे-मेरा;कुछ/लगाव नही, वह पीनेमे श्रायो,है तो कुछ
समय बाद दूर हों जायगां, ऐम्ा ,भ्रीतरमे, भाव॑ ,रेखे तो, उसका नशा ,सामान््य रहेगा झौर
पोकर उसहोीस्मे ग्रासक्त हो, ब्ह-ऐसा बारजार सोचे कि, मैंने: पिया है, तो;उसके नशा शीघ्र
ही श्रायगा, , विरवितसे,भी. ; कुछ प्रन्तर,,पड़ जाता,है,- बाहरी, बात़ोमे भी ।5,फिर,तो जहाँ
“अपने श्ात्मामे ही'विषयविर्वितु-पडी हुई है वहाँ ,कदाचित्न्क्रमंकी-अल़वत्तासे भोग भी भोगने
{पडे तो वर्ह^उनसेविरक्त रहता है । सम्यस्टृष्ठि। ज्ञात्ती जीवकी , वह श्रद्धा, कलाका इतना श्रद्
भुत माहात्म्य है कि| उसको, निरेन्तराझपने सहज अविकार- स्वसप्रमे प्रतोति-- रहती है और
“यही बडो, कमायी है, जो भ्पने पश्रापसे5ऐसी, प्रत्तीति,,बना-ले, - सदा, यह ही धानि रहै किरम
तो,श्रविकार-चेतनागमात्र ज्ञात्रा हूं श्रौर जो करं सुकपरन्मलिलता छारर्ही है, यह सग
User Reviews
No Reviews | Add Yours...