सहजानन्द ज्ञानामृत प्रवचन | Sahajanand Gyanmrat Pravachan

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Book Image : सहजानन्द ज्ञानामृत प्रवचन  - Sahajanand Gyanmrat Pravachan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ज्ञानामृत प्रवचन ६ सहज चैतम्यस्वमावकी श्रहैतरकता- লী श्रनादि ्रनन्तः दै उसक्रा कोई कारण नही, वह तो स्वय श्रपने श्रापसे है । जिन बातोमे कारण होता है उनकी आदि है ओर श्रन्त हैं, जितनी कषाये मिथ्यात्व मोह आ्रादिक विकार है वे सहेतुक है श्रर्थात्‌ कर्मविपांकका निमित्त पाकर जीवद्रव्यमे उस योग्य उपादानमे किसी समय हुए है। यद्यपि ऋजुसूत्रनयकी दृशसे देखा जाय तो ऋजुसूत्रनय चूँकि एक समयकी पर्यायक्रों हो निरखता है, दूसरा कुछ देखता ही नही है, इसके मायने यह नही है कि दूसरा कुछ है ही नहीं । द्रव्य है, पृ्वेकी पर्याये है, उत्तर की पर्याये है, सब कुछ होनेपर भी ऋजुसूच्रनयका विषय तो एक समयकी पर्याय है। तो जब ऋजुसूत्रनयको दृष्टिमे तका जा रहा है तो पर्याय अद्देतुक कही जाती है, क्योकि पूवे उत्तरं का कुछ भी इस नयकी निगाहमे नहीं है, लेकिन क्‍या ग्रहेतुक है, इतना ही सत्य है ? इमका एकान्त करे तो वह असत्य दर्शन हो जाता है। ऋजुसूच्रनयकी दृष्टिसे पर्याय अहेतुक है, लेकिन द्रव्याधथिकनयकी दृष्टिसे जिस द्रव्यमे पर्याय हुई है वह द्रव्य पहले भो है, बादमे भी है । श्रौर द्रव्यमे पर्याय निरखो जो कि द्रव्याथिकनयके भेदरूप व्यवहारनयकी हृष्टिसे कहा जायगा कि पूवं पर्याय सयुक्त द्रव्य वर्तमान पर्यायका उपादान कारण है और जो विकार वाली पर्याय है उसमे कोई परउपाषिका संसर्ग निमित्त है तो परिणमन तो सहेतुक है, पर सहजस्वभाव सहेतुक नही, वह श्रनादि अनन्त है तथा ग्रहेतुक है, ऐसे भ्रनादि ग्रनन्त अद्वेतुक सहज चैतन्य- स्वभावका जो भव्य प्राणी श्राश्रय करते है उनके सम्यक्त्वका आविर्भाव होता है । परपदाथे या परभावसे श्राश्नयसे विकल्पका प्रादर्भाव--अभब इसकी विपरीत बात समभिये--जो पुरुष इस सहज चैतन्यस्वभावका श्राश्रय नहीं करता है तो किसका आश्रय कर रहा होगा ? आ्राश्नय तो जहूर है, वहाँ या तो परपदार्थका श्राश्रय हैं या परभावका श्राश्रय है । परपदार्थका आ्राश्नय तो कहलाता है व्यत्रहारसे, परभावका आश्रय होता है निश्चयसे । यह निश्चय है अशुद्धनिश्चयनय । जो जीव किसी परपदार्थका आश्रय कर रहा याने मकान, धन« धान्य, स्त्री-पुत्र मित्रादिक बाह्य पदार्थेका आश्रय कर रहा है उस ॥पृरुषके सम्यक्त्वका आवि« भगव नही होता, किन्तु विकल्पका ही श्राविर्भाव होता है। यहाँ एक बात और समभनी है कि जब-जब विकल्पा भ्राविर्भाव है तब तत्र सम्यवत्वकी उत्पत्तिका सम्बध नही ই । सम्य. बत्वकी उत्पत्ति श्रखण्ड निविक्ल्प ॒ज्ञानस्वभावकी भ्रनुभूतिपूर्वक होती है। पश्चत्‌ মল হী अनुभव न रहें ओर सम्यक्त्व बना रहै, एेसा हौ सक्ता है, लेकिन प्रथम ही प्रथम जब सम्य- वत्वका श्राविभवि होता तो भ्रखण्ड निविकल्प सहन ज्ञानस्वभाव, सहज चैतन्यस्वभावका आश्रय करता हुआ यह जीव निविकल्प होतेमे सम्यवत्वकी उत्पत्ति पाता है। किसी भी पर पद.थेका श्रश्रय किया जाय तो वहां विकल्प ही जगता है। जैसे लोग बाह्य पदार्थका ध्यान




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