अध्यात्मसहस्त्री प्रवचन (दशम भाग) | Adhyatmsahastri Pravachan (Dasham Bhaag)

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ग्रध्यात्मसहस्री प्रवचन ११ मे यह्‌ कहा जा सकता है कि मेरु पर्वतकौ जडके नीचेकी जो मिह है वह्‌ भी घडेका उपादान है, पर वह नही लाया जा सकता, न उसका घडा बन सकता है । फिर भी शुद्ध उपादानदृष्टि से जब निरखते है तो वहाँ भी यह कहा जा सकता है। ऐसे ही अपने आपमे शुद्ध उपादानकी हृष्टस्सि जब निरखते है, उसकी विवक्षा है तब वहाँ एक च्त्स्वरूपमात्र दृष्टिमे श्राता है | यहाँ उपादेय शुद्ध भावके लिए एक यह दृष्टि बनायी गई है, इस दृष्टिको कहते हैं-- विवक्षितगुद्धों- पादानहृष्टि । प्रन्त्व्याप्यव्यापकटहष्टि व श्रन्वयव्यतिरेकटष्टिका निर्देश--एक टट है अतव्यप्यव्यापक- दृष्टि । देखियि---सभी दृष्टियोमे निहारा गया एक हो तत्त्व, दूसरा नही । जो अपने आपका सहज सिद्ध स्वरूप है निरखना केवल उसको है। उस हृष्टिमे हमारी कितनी पद्धतियाँ काम देती है, उनका यहाँ वर्णन है 1 अन्तर्व्याप्यव्यापकदृष्टि कहते है वस्तुके भीतरी स्वरूपमे ही जो व्याप्य है, जो व्यापक है, ऐसा अपने आपमे व्याप्यव्यापकभाव निहारनेको अन्तर्व्याप्यव्यापक दृष्टि कहते है | जैसे मोही जीव सोचते है कि मै इस घरमे हू, मैं इतने लोभोके बीच हु या मुझमे इतने लोग समाये हुए है, जिनसे लगाव है, प्रीति है उनमें उन मोहियोका भाव जगता है, तो भ्रन्तव्यप्यव्यापकदुष्टिने बताया कि बाहर तेरा कोई न व्याप्य है, तृ और बाहरमे तू कही व्यापक नही है । तु तो अपने स्वरूपमे ही अ्न्तर्व्याप्यव्यापक भावरूपसे रह रहा है, ऐसी थ्न्तरव्य प्यव्यापकद॒प्टिसे आ्रात्मामे क्‍या प्रभाव होता है, उसका बर्णान होगा । एक दृष्टि है भ्रन्व यग्यतिरेकटृप्टि । इस हप्टिका विपय श्रात्मतत्तव तो नही होता, इससे निहारा जायगा रागादिक विकार ग्रौर पौदगलिक कर्म॑का उदय होनेपर रागादिक विकार होते है । ऐसा ग्रन्वय- व्यतिरेक सम्बन्ध यहाँ पाया जां रहा है । लेकिन इस তি ्रात्मतत्वकी उपासनाको बलं कंसे मिलता है ? यहु ध्यानमे लीजिये । वह्‌ बल इस तरह मिलता है कि जब इन परेशान करने वाले रागादिक भावोमे भ्रन्वयन्यत्तिरेक हप्टिसे पुद्गलकर्मका सम्बध कर জিনা ই নী হল अपनेको रागादिकरूप भी न अनुभव करेंगे, इसके लिए सहयोग प्राप्त होता है | तो यो श्रन्दयं व्यत्तिरिक दृष्टिसे भी श्रात्मतत्वको किस तरह उपयुक्त करनेमे सहयोग मिलता है, इसका वर्णान होगा । स्वभावहृष्टिका निर्देश---एक दृष्टि है स्वभावदृष्टि । स्वभावका निरखना, इसका सीधा क्या अर्थ है ? इसे पहिचाननेके लिये यह समभिये पहिले कि स्वभाव किसे कहते है ? खुदमे खुद ही परका सहारा लिये बिना जो शाश्वत हो उसे स्वभाव कहते है । जैसे पुदूगलमे मूति- कताका स्वभाव है, और मोटे दृष्टान्तमे किसी पदार्थकों हे कर कहो---अग्निमे गर्मीका स्वभाव है । अग्नि पदार्थ नही है । गझ्गर अग्निको कोई पदाथं मान करके उसका वणन करे तो वर्णन होगा कि उसमे उपष्णताका स्वभाव है। उष्णता न रहे तो अग्नि भी न रहेगी । सो इस...




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