भावसंग्रह | bhav Sangrah

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bhav Sangrah by लालारामजी शास्त्री - Lalaramji Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ७ ) के किनारे पर ध्यान लगाये बेठे हों वर्षा में जो ब्ृक्षों के नीचे टय्कते हुये पानी में बाहे' लुभाये' खड़े हों ओर जो सिंह व्याच भालू आदि हिसक जानवरों से भरे हुए जंगलों में रहते हों वे ही सावु हो सकते हैं । आजकल नगरों में मन्द्रों मठों भौर धर्मशाला आदि में रहने वाले साधु, मुनि नहीं कहलाने योग्य हैं, आदि आक्षेपो ओर दुर्भावनाओं से अनेक लोग वरतमान साधुओं को साध ही नही समभते हैं इस विषय में आचाये सोमदेव आचाये कुन्द कुन्द आदि महान्‌ आचार्यों ने स्वरचित शास्त्रों में बहुत अच्छा समाधान किया हे, उन्हूनि लिखा है- काले कलो चले चित्त देर चान्नादि कीटके । एतच्चित्र' यदधापि जिनसूपधरा नराः ॥ अथांत्‌ आज के इस पतनशील कलिकाल में ओर चित्त की क्षण क्षण मे बदलने बाली चंचलता में साथ ही शरीर के अन्न का कीड़ा बनजाने पर भी आश्चये है कि आज भी जिन रूप को धारण करने वाले साधु गण दीख रहे हें । पण्डित प्रवर आशाधरजी ने लिखा है कि वतमान मुनिराजों को चतु काल के मुनिराजों के समान ही सममः कर उनकी श्रद्धा पूजा करना चाहिए । जो लोग मुनिराजों की परीक्षा में ही अपनी बुद्धि का समस्त सतुलन खो बेठते हैं और कहते फिरते हैं कि इनकी ईयां समिति ठीक नहीं है। ये उद्दिष्ट भोजी हैं । आदि, इन तथ्य कुतर्को का उत्तर देते हुए पूर्वाचाये कद्दते हैं कि--




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