श्रीमद् राजचंद्र | Sri Mad Rajchand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विषय-सूची पन्मांक पृष्ठ १६० “ अनुक्रमे संयम स्पशतोजी ” २७५ २६१ यक्षोविजयजीके হাক १७५ २६२ श्चायिकचारित्रका स्मरण २७५ २६३ सहन करना ही योग्य है २७६ २६४ निजस्वरूपकी दुलभता २७६ २६५ ५४ एक परिनामके न करता दरब दोइ ২৩৩ २६६ उक्त पदका विवेचन २७७-८ २६७ “ शातसुघारस * २७९ २६८ जिन्दगी अल्प है, जेजाल अनन्त है २७९ २६९ ८ जीव नधि पुमाली ” २७९ २१७० जाया दुस्तर ह २७९--८० संसारसंबंधी चिन्ताका सहन करना | ही उचित है २८० तीथेकरका अतर आशय ২৫৭, २७१ सम्यग्दक्षनका मुख्य रक्षण वीतरागता २८२ २७२ (जबहीतै चतन विभावसौ उटटि आपु `` २८२ २७३ केवलशान, परमार्थ-सम्पक्त्व, बीजरुचि- सम्यक्त्व और मागोनुसारीकी व्याख्या. २८२ ; २७४ ¢ सुद्धता विचरे ध्यावे २८३ २७५ उपाधिका प्रसंग २८३ २७६ “ेबेकों न रही ठौर ” २८३ २७७ पूर्वकर्मका निश्रंधन २८३ बनवासको याद २८४ २७८ दशनर्परिषह २८५ २७९ पुरुषार्थकी प्रधानता २८६ २८० अंबारामजीके संबंधभ २८६ २८१ देह हेनिपर भी पूरणं वीतरागताकी सेभवता २८७ २८२ परिणामे उदास भाव २८७ २८३ सुख दुःखको सममावसे देदन करना २८८ २८४ परिणामे अच्यन्त उदासीनता २८८ २८५ भ्यातिष आदिमे अर्चि २८८ २८६ शान सुगम हे पर प्राति दुरुभ हे २८९ २८७ आपत्ति वगैरह आना जीवका ही दोष. २८५९ २८४ दुःघमकाल २८५ २८९ सत्सगमे फरुदायक भावना २९० २९० सस्तेगकी दुरुभता २९० २९१ लोककी स्थिति २९० २९२ प्रारब्धका भोगे बिना छुटकारा नहीं २९१ २९३ धीरजसे उदयका वेदन करना २९१ । २५४ उपाषिका प्रतिबंध २९१ १३ | पश्चांक पृष्ठ । २५५ आत्माकी ऊृतार्थता २९२ ¦ ९९६ जेन ओर बेदात आदि$े भदका त्याग २९९ ¦ २५७ जरह पू्णकामता हे वरदौ सधैशता है २५९ , २९८ पू्णशानका लक्षण २९२ २९५९ योगीजन तीथेकर आदिके आत्मत्वका स्मरण २५३ । ३०० अखंड आत्मध्यानकी दशा विकट उपाधियोगका उदय २९३ ३०१ ईइवर आदितकर्म उदासीनभाव-मोक्षकी निकटता २९४ , ३०२ भाव समाधि और बाह्य उपाधिकी विद्यमानता १९४ ३०३ मनके कारण ही सब कुछ २९५ ३०४ लजा और आजीविकाका मिथ्यापना २९६ ३०५ आत्मविचार घर्मका सेवन करना योग्य है. २९७ कुलधरमके लिये सूत्रकृतांगके पढ़नेकी निष्फलता २९८ ३०६ अपने आपको नमस्कार २९९ ३०७ शानीको प्रारन्ध, इश्वरेन्छा आदिम सममाव २९९ ३०८ समयसार पढ़नेका अनुरोध ३०० ३०९ मोक्ष तो इस कालमें भी हो सकता है. ३०० मोक्षकी निस्ृहता ३०१ ' ३१० प्रमुभक्तिमे तत्परता ३०१ मत मतांतरकी पुस्तकोंका निषेष ३०% ३११ तेरहवें गुणस्थानका स्वरूप ३०२ ३१३ दु्तरा श्रीराम ३०२ , ३१३ चित्त नेत्रके समान है ३०३ ३१४ उपाषधिमें विक्षेपरद्वित प्रवृत्तिकी कठिनता ३०४ ३१५ शानीको पह्चाननेसे शानी हो जाता है. ३०४ ३१६ भ्रीकृष्णका वाक्य ३०४ ३१७ जगत्‌ और मोक्षके मार्यकी मिन्नता ३०४ ३१८ ^° नागर सुख पामर नव जगि ” ३०५ वसिष्ठका वचन ३०५ , ३१९ आनन्दवनजीके वाक्य ३०६ । ३२० “ मन महिलानु वहाला उपजे ५ २३०६-७ ३२१ (न्तम श्रुतधर्मे मन हृद घरे ” ३०८ ' ३६२ चित्रपटकी प्रतिमाके दृदयदशैनसे महान्‌ फल ३०९ ३२३ क्षायिकसमकित ३०९-१३ ' ३२४ कालकी क्षीणता ३१४ जीका कल्याण ३१४




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