श्री पारस जिनेन्द्र - गीतांजलि | Shri Paras Jinendra Geetanjali

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Book Image : श्री पारस जिनेन्द्र - गीतांजलि - Shri Paras Jinendra Geetanjali

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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“चित्तवन: एवं নুহীল आह्मसाक्षात्कार करनें: वाला है 1-सम्य्टष्टि ` जीव की भक्ति का एक झ़दाहरण -द्वोलतराम जी क़ी:विनती:में देखिये-- जय परम चान्त मुद्रा समेत्त भविजनः को निज अनुभति हेत । भवि भागनवशज्ञ जोगे वसाय तुम धुनि दं सुनि विश्रम नशाय। तुम गुण. िन्ततः निज पर तिवेक प्रगटेः विघटे आपद अनेक । सच्चे भक्त की भावना: ही कितनी पवित्र होती-है, देखिये उसको हृढ़ संकल्प्र,-शक्ति-को जिनधमविनिमुक्तो मा भूव॑ चत्रवत्य॑पि । स्थाच्चेटो5प दरिद्रोषपि जिनधमन्रवासितः ॥ जिन धर्म से रहित होकर मुझे चक्रवर्ती होना भी पसंद नहीं है, किन्तु जन धर्म से सहित दास और दरिद्री होना भी सह॒र्ष स्वीकार है । जिसे आत्मा की हद्‌ प्रतीति है व्ही जिनेन्द्र का सच्चा भक्त वन सकता है । भक्ति से आत्मा फो अन्तरंग राक्ति का आभास होता है। अतः आत्मा की अन्तरंग शान्ति के लिये जो भी प्रयत्न होता है वह निर्मल इशेन ज्ञान स्वभाव से परिणत परम आत्मा की दृष्टि और निज की भी कल्पना से प्रेरित निज सहज स्वभाव की दृष्टि है । इसी पवित्र भावना की प्रेरणा से शुभराग के कारण आत्मा भगवद्रभक्ति में लीन होता है । भगवद्‌ भक्ति के माध्यम से स्वात्महष्टि पाना ही भक्त को अभीष्ट होता है, अतः हम व्यवहार से भले हौ देवपूजन कहेँ पर निश्चय से तो वहू स्वात्मटष्टि ही है । 8, स 5




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