चरित्र सागर | Charitra Sagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चारित्रसार ] [५ नारकी तिर्यञ्च नप्‌ सक, स्त्री नहीं होता, नीचकुलमें उत्पन्न नहीं होता, विकत ( श्रंग उपांग हीच ) नहीं होता, थोड़ी श्रायवाला नहीं होता और दरिद्री मी नहीं होता! श्रौर भी लिखा है--इस संसाररूपी महासागरमं जो भव्य चारित्ररूपी जहाजपर चढ़कर मोक्षरूपी द्वीपफो जारह हैं उनके लिए यह सम्यरदर्शन खेवटियाके समान हैं। भावार्थ--सम्यग्दशनके बिना ये कभी सोक्ष नहीं पहुंच सकते । किसी समय किसी सस्यग्दृष्टिके दर्शशमोहनीय कर्मके उदयसे शंका; श्रार्काक्षा, विचिकित्सा श्रन्यदृष्टिप्रशंसा तथा श्रन्यदृष्टिसंस्तव ये पांच अति- चार भी होते हैँ । मनसे सिथ्यादृष्टियोंके ज्ञान और चारित्र गुण्पोंको प्रगट करना प्रशंसा है श्रौर वचनसे उनसे होनेवाले वा न होनेवाले मुखोको प्रगट करना संस्तव है बस! यही सनसे तथा वचनसें होनेवाली प्रशंसा और स्तुतिमें भेद हं बाकीके अतिचार सब सरलं} सम्यरदशंन श्रणु- व॒ती ओर महाव॒ती दोनोके एकसा होता हैं। इसलिए ये श्रतीचार भी दोनों के ही होते है । जो शल्यरहित होकर पांच अणुवृत रात्रि भोजन त्याग शोर লালা शीलोको [ तीन गुणवत चार शिक्षावतोंको | अतिचार रहित पालता है वही व॒त्ती कहलाता हें । शल्यबाणको कहते हें--जिसप्रकार शरीरमें घुसा हुआ बाण झ्थवा भाला वरछाकी चोद जीवोको दुःख देती हैं उसीप्रकार कमरे उदयजन्य विकार होनेपर जो शल्यके ( बाणकं ) ससान शरीर श्रौर मनको दुःख देनेबाली हो उसे शल्य कहते ह । वह्‌ शल्य माया निदान ओर मिध्यादशनके भेदसे तीनप्रकार है । वंदना ठगना श्रादिको माया कहते हं । विषय भोगोंकी इच्छा करना निदान हैं और अतत्वोका श्रद्धान करना अथवा तत्वोंका श्रद्धान न करना मिथ्यादर्शन है। आगे जो महाव॒तका स्वरूप कहेंगे उसको धारण करनेवाले महावतीकों भी तोनों शल्योंका त्याग कर वा चाहिए




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