देश में देश का उपनिवेश | DESH MEIN DESH KA UPNIVESH

DESH MEIN DESH KA UPNIVESH by पुस्तक समूह - Pustak Samuhविभिन्न लेखक - Various Authors

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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राज्य सत्ता बनाम लोक सत्ता संविधान की मंशा के मुताबिक संप्रश्चु सत्ताः जनता और समुदाय में निहित है, न कि राज्य में। संविधान के 73 और 74 वें संशोधन पंचायतों, नणर निकायों व जिला योजना समितियों को स्वशायन की संस्थाएं बनाते हैं। लेकिन इसकी अवहेलना करके योजना आयोग और शहरी विकास प्राधिकरण केंद्रीकृत गलत विकास का जरिया बने हैं। वैकल्पिक विकास के लिए सत्ता का विकेंद्रीकरण जरूरी है। रविकिरण जैन इलाहाबाद उच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील हैं। पीयूसीएल के वरिष्ठ पदाधिकारी रहे हैं। [भा शोतिवा (9५99#00.00.17 रविकिरण जैन एवं अगु मालवीय “* भारत की सेवा का मतलब है उन करोड़ों लोगों की सेवा जो वंचित हैं। इसका मतलब है गरीबी, अज्ञानता, बीमारी और अवसरों की असमानता को खत्म करना। हमारे युग के महानतम व्यक्ति की महत्वाकाक्षा हर आख से आसू पोछने की है। यह हमारी क्षमता से बाहर हो सकता है लेकिन जब तक आसू और तकलीफे हैं, हमारा काम खत्म नहीं होता। ” -जवाहर लाल नेहरू संविधान सभा हॉल, 14-15 अगस्त की रात्रि 1947 आजादी की कई दहाइयां बीतने के बाद भी हमारे देश में ' गरीबी, बीमारी, अज्ञानता और अवसरों की असमानता' खत्म नहीं हुई है। आंकड़ेवार तरक्की के तमाम दावों के बाद भी हालात ये हैं कि मानव विकास के कई सूचकांकों में हमारी हालत उपसहारा अफ्रीका के गरीबतम देशों के बराबर है। दुनिया भर के गरीबों की एक भारी संख्या और कुपोषण से बदहाल बच्चों की बड़ी संख्या हमारे देश में रहती है। आजादी के आंदोलन से निकला तपा तपाया नेतृत्व, एक पर्याप्त रूप से विकसित और विस्तृत संविधान और तमाम झटकों के बाद भी एक स्थाई लोकतंत्र की स्थापना के बावजूद आज हम स्वराज और सुराज के लक्ष्य से बहुत दूर पहुंच गए हैं। तो क्या इस पर बात करना जरूरी नहीं कि चूक कहां हुई? क्‍यों आज हम बेलगाम शहरीकरण, बरबाद होती खेती, नष्ट होते पर्यावरण, विस्थापन, गरीबी, भ्रष्टाचार और सामाजिक हिंसा के उस गर्त की ओर बढ़ते जा रहे हैं जहां से वापसी संभव नहीं होती । आज इन बीमारियों के मूल कारण को पहचानने और उसका इलाज करने का वक्त आ गया है। हमारी समझ से यह बीमारी है सत्ता और संसाधन का केन्द्रीकरण। आजादी के बाद हुआ विकास केन्द्रीकरण के रास्ते पर चला है। भारी उद्योग आधारित केन्‍्द्रीकृत अर्थव्यवस्था तथा कार्यपालिका और विराट नौकरशाही के हाथ में ताकत के सिमटते जाने ने हमारे लोकतंत्र को एक औपचारिक लोकतंत्र में तब्दील कर दिया। जनता की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शिरकत बस पांच साला चुनावी अनुष्ठान में मतदान तक सीमित हो गई है। शुरु में नई-नई मिली आजादी के जोश और आजादी की लड़ाई के नायकों के सत्ता में रहने से पर्दा पड़ा हुआ था। लेकिन जैसे ही ये लोग राजनीति के मंच से विदा हुए केन्द्रीकरण की प्रवृतियां बेकाबू हो गईं । 1971 में संसद और विधानसभा के चुनावों के एक दूसरे से अलग किए जाने से यह प्रक्रिया शुरू हुई । यह सिलसिला बहुत तेजी से वहां पहुंच गया जहां कि संसद और न्यायपालिका उपेक्षित हो गए और सारी ताकत कैबिनेट के हाथों में सिमट गई । दो-चार वर्ष में ही देश का सारा काम-काज प्रधानमंत्री कार्यालय से संचालित होने लगा। इस केन्द्रीकरण ने हमें आर्थिक भ्रष्टाचार, गजनीतिक पतन और सामाजिक विद्वेष के उस मोड़ पर पहुंचा दिया जहां से जनता की संप्रभुता के पूर्ण हनन के रास्ते खुलते हैं। इस प्रक्रिया का एक नतीजा यह हुआ सामयिक वार्ता #* जुलाई-अगस्त 2013




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