सामाजिक वार्ता - सितम्बर 2013 | SAMAYIK VARTA , SEP 2013

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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के मुनाफे बढ़े | कुल मिलाकर भुगतान संतुलन के नजरिए से नुकसान ही हुआ। उधार की ख़ुग़फहमी विदेश व्यापार के विशाल घाटे के कारण भुगतान संतुलन के चालू खाते का घाटा भी लगातार बढ़ता गया। अब यह भारत की राष्ट्रीय आय के 4.8 फीसदी के आसपास हो चला है जो कि एक खतरनाक और चिंताजनक स्थिति है । काफी समय तक भारत सरकार चालू खाते के घाटे के प्रति बेपरवाह बनी रही, क्योंकि पूंजी खाते के अधिशेष (सरप्लस या बचत) से इसकी पूर्ति होती रही। सरकार विदेशी करजों से और विदेशी पूंजी को बुलाकर घाटे का यह गड्ढा भरती रही । इतना ही नहीं , उनके कारण बढ़ते विदेशी मुद्रा भंडार को वह अपनी उपलब्धि बताती रही। अब विदेशी पूंजी का प्रवाह कम होने लगा है और चालू खाते के बढ़ते घाटे को पूरा करने में वह नाकाफी दिखाई दे रहा है तो संकट आ गया है। एक तरह से यह संकट आना ही था। इन पंक्तियों के लेखक ने काफी पहले ही इस नीति के खतरों के बारे फीसदी पर पहुंच रहा है। भारत सरकार मानती है कि यह कोई चिंता की बात नहीं है। हो सकता है, लेकिन ज्यादा चिंताजनक है इसमें अल्पकालीन करजे का बढ़ता हिस्सा । अल्पकालीन करजों के वापसी की तारीख जल्दी-जल्दी आती है। यदि उनका नवीनीकरण न हो या उनकी जगह दूसरे अल्पकालीन करजे मिलना रुक जाए, तो वे भुगतान संतुलन का संकट खड़ा कर देते हैं। भारत के कुल विदेशी करजे में अल्पकालीन करजों का हिस्सा 2002 में 2.8 फीसदी था जो अब बढ़कर 25 फीसदी हो चला है। गौरतलब है कि 1991 के संकट के वक्‍त अल्पकालीन करजों का हिस्सा 10.2 फीसदी था ( आर्थिक समीक्षा, 2010-11 एवं 2012-2013 तथा इकानॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली, 17 अगस्त 2013) । विदेग़ी पूंजी की बंधक सरकार अल्पकालीन करजों जैसा ही खतरा विदेशों से आने वाले पोर्टफोलियो पूंजी निवेश से है। विदेशी पूंजी निवेश दो तरह का होता है- प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई ) और में चेतावनी दी थी। (देखें, सुनील, ' विदेशी मुद्रा का फ़ूलता गुब्बारा; असलियत, खतरे ऑर घोटाले', प्रकाशक-समाजवादी जन सवाल यह उठता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था ऐसी हालत में क्‍यों पहुंच गई है कि अमरीकी सरकार की किसी घोषणा मात्र से रुपया लुढ़कने लगता है और हड़कंप मच जाता है? यह प्रसंग भारतीय अर्थव्यवस्था की गहरी पोर्टफोलियो निवेश । पहला भारत के अंदर उद्योगों व अन्य कारोबारों में आता है। दूसरा शेयर बाजार, करज बाजार आदि में आता है। परिषद, वाराणसी, 2004 ) दरअसल भारत सरकार में बैठे विशेषज्ञों, अर्थशास्त्रियों और नीति-निर्माताओं ने यह साधारण बुद्धि भी लगाने की जरुरत नहीं समझती कि उधार की आवक कोई कमाई नहीं है। उससे हमारी देनदारी बढ़ती ही है। विदेशी करजों को ब्याज सहित वापस भी करना होगा। भारत के शेयर बाजार, करजा बाजार या वायदा बाजारों में जो विदेशी पूंजी आ रही है, वह मुनाफा तो ले ही जाएगी, कभी भी वापस भी जा सकती है। इनसे आने वाले सालों में विदेशी मुद्रा में भुगतान बढ़ते जाएंगे। यही नहीं, इन पर निर्भरता खतरनाक है। भारत के ऊपर विदेशी करजा लगातार बढ़ता जा रहा है। मार्च 2002 के अंत में यह 98.8 अरब डालर था जो मार्च 2013 के अंत में 390 अरब डालर के स्तर पर पहुंच गया था। यह कुल राष्ट्रीय आय के करीब 20 कमजोरियों की ओर ड्रंणित करता है। यह दूसरी पूंजी कभी भी अपने शेयर या अन्य परिसंपत्तियां बेंचकर बाहर जा सकती है| पोर्टफोलियो निवेश लगातार घटता-बढ़ता रहता है, कभी ऋणात्मक भी हो जाता है (यानी जितनी पूंजी बाहर से आई, उससे ज्यादा चली गई , 2008-09 में ऐसा ही हुआ) | लेकिन कुल मिलाकर भारत के विदेशी निवेश में पोर्टफोलियो निवेश का हिस्सा आधे के करीब रहा है। भुगतान संतुलन के नजरिए से यह पूंजी सबसे ज्यादा जोखिम भरी है और भरोसे के लायक नहीं है। संकट के वक्‍त यह सबसे पहले भागती है तथा संकट को और बढ़ाती है। मिसाल के लिए जून महीने में ही पोर्टफोलियो निवेश देश में आने के बजाए 7.2 अरब डालर की पूंजी बाहर चली गई। इस चंचल विदेशी पूंजी पर निर्भरता का नतीजा यह हुआ है भारत सरकार को हमेशा इसके मिजाज और 16 सामयिक वार्ता # सितंबर-अक्तूबर 2013




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