शोध दिशा, जुलाई-दिसम्बर 2013 | SHODH DISHA , JULY- DEC 2013
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
1 MB
कुल पष्ठ :
64
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पलाश के लाल-लाल फूल, ताजा घाव से झरती खून
की धारा, समुद्र में डूबती लाल-लाल शाम और बहुत
कुछ। न जाने कितने संक्रांत भाव इन चित्रों में है, न जाने
ये किन-किन अर्थों के बिंब है, न जाने प्रभा किन-किन
रूपों में खुद भी इन बिंबों में हैं। मैंने यह चित्न सहेजकर
अपने बक्स में रख लिए। पत्नी से ज़िक्र नहीं किया। में
तो उद्दिग्न हो ही रहा था, पत्नी को भी क्यों उद्दठिग्न करूँ?
और यह आखिरी चिट्ठी। मैंने अब ध्यान दिया
कि इसमें अंत में 'फिर कभी ' नहीं लिखा था। इसलिए
मैं इसी चिट्ठी को बार-बार पढ़ने लगा। सोचने लगा,
कविताएँ शायद आती हों या शायद् मरते समय तक फेयर
न हो सकी हों और अब गैरज़रूरी कागूजु समझकर घर
वालों द्वारा फाड़कर फेंक दी जाएँ। एक बार फिर यह
चिट्ठी आद्योपांत पढ़ गया-
भइया,
यह मेरी आख़िरी चिट्ठी है। मैं जा रही हूँ। इस
दुनिया में तुम्हारे सिवाय और कोई नहीं है, जिससे में
आखिरी शब्द भी कह सकूँ। मैं अपनी बेटी और अपनी
कहानी छोड़े जा रही हूँ। दोनों एक ही हें। हाँ, भइया, दोनों
एक ही हैं। मेरी बेटी के माध्यम से फिर मेरी कहानी की
पुनरावृत्ति होगी, दोनों को शायद कोई नहीं स्वीकार करेगा।
एक माँ को मरते समय अपनी बेटी को अपनी कहानी से
शापित नहीं करना चाहिए, यह मैं जानती हूँ, भइया!
लेकिन क्या करूँ, जिस अकेलेपन और संबंधहीनता के
जंगल में बेटी को छोड़कर जा रही हूँ उसमें उसकी और
गति ही क्या हो सकती है? कोन है जो उसे सँभालेगा?
कहने को तो उसकी दादी भी हैं, बाप भी हैं, लेकिन ये
सब केवल कहने के लिए हैं, उसकी सुरक्षा के लिए
नहीं हैं; संबंधों की बेड़ी जकड़ने के लिए हैं। शायद
इनके संबंधों से मुक्त होकर वह अपने भाग्य के सहारे
जी भी लेती, लेकिन इन संबंधों की जकड॒न में वह मेरी
या मुझ जैसी लड़कियों की कहानी की पुनरावृत्ति ही
करेगी। संबंधों की ये बेडियाँ न होतीं तो शायद तुमसे एक
बार साहस करके कहती कि मेरी थाती को सँभालना
और मेरी कहानी की पुनरावृत्ति से इसे बचाना। लेकिन
संबंधों के भयावह यथार्थ को मैं जानती हूँ। ये न सुरक्षा
देते हैं, न मुक्त करते हैं, केवल अपने पूरे बोझ से आदमी
पर लदे होते हैं। और मैं तुम पर अपना बोझ डालती भी
तो किस अधिकार से! जब मेरे भाई, पति, सास सभी ने
अपने संबंधों से जकड़कर केवल मारा-पीटा, केवल
उपेक्षा की, केवल ज़हर दिया, फिर तुमसे मेरा क्या
संबंध? नहीं, मैं भूल रही हूँ, संबंध नहीं है, तभी तो
तुमसे में यह सब-कुछ कह रही हूँ। शायद जाने-पहचाने
16 « शोध-दिशा « जुलाई-दिसंबर 2013
संबंधों से परे भी एक संबंध होता है, जो आरोपित नहीं
होता, स्वयं बनाया गया होता है, जो अधिक मानवीय और
विश्वस्त होता हे। इस जीवन में तुमसे जो प्यार और
आत्मीयता पा सकी, उसी से लगा कि यह जीवन है, नहीं
तो जीवन लगने जैसी और क्या बात थी इस प्यासे जीवन
में? चलते-चलते तुम्हें एक बात बताऊँ। माँ ने पिता जी
के मरने पर उनके खून से सनी मिट्टी का टुकड़ा
सहेजकर रख लिया था। माँ के मरते समय मैंने मिट्टी
के उस टुकड़े में से थोड़ा निकाल लिया था। और आज
खुद मरते समय उसे अपने ब्लाउज के नीचे रख ले रही
हूँ। माँ और पिता जी के संबंधों की ऊष्मा मुझे अपने
दांपत्य जीवन में कहाँ मिली? यह तो ठीक उसके उल्टा
के लिए उसे छाती से चिपकाए मर रही हूँ। अच्छा भइया,
अलविदा.......अलविदा
तुम्हारी बहन
प्रभा '
तो प्रभा चली गई? न जाने कैसा-कैसा लग रहा
था। एक अवसन्न उदासी ने मन को ग्रस लिया था किंतु
भीतर-भीतर कहीं चित्त हलका भी हो रहा था कि चलो,
प्रभा को मुक्ति मिली; रोज़-रोज़ के मरने से मुक्त हो गई
प्रभा। लेकिन उसकी बेटी? अनाथ, निर्धारित और नारी
की वही कहानी दुहराने के लिए अकेली छोड दी गई
बेटी! उसका क्या होगा? लगा, जैसे सूनी रेत के विस्तार
में मछली की तरह सोई हुई एक लड़की हाथ-पाँव
फेंककर रो रही है, रोते-रोते उसका गला बैठ गया हे।
कोई नहीं है सुननेवाला, कोई नहीं है देखनेवाला।
में सोचता हूँ, उठा लूँ उसे लेकिन देखता हूँ, दूर
खड़े होकर कुछ लोग सावधान हैं कि उसे कोई उठाने न
पाए और फिर मेरे अपने पाँव भी तो उलझे हुए हैं अपनी
परिस्थितियों के जाल में। कहाँ उठ पाएँगे आसानी से।
नहीं, मुझे इतना निराश नहीं होना चाहिए। प्रभा की
बेटी एक विद्रोही की कविता है, उसके प्यार और आग
भरे हृदय से फूटी हुई एक मूर्त कविता। वह घूरे पर नहीं
फेंकी जा सकती। नहीं, वह अवरोध पाकर और उठेगी,
वह अपनी ही लपटों की झालर में अपनी रक्षा करेगी।
प्रभा ने एक नई शुरुआत की है, जिसमें खुद तो होम हो
गई, किंतु होम होकर उसने जो ताप और दीप्ति दी हे, वह
नहीं मरेगी।
आर 38, वाणीविहार, उत्तमनगर
नई दिल्ली 110059;
दूरभाष : 011-28563587
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