शिक्षा : कितना सर्जन , कितना विसर्जन | SHIKSHA - KITA SRIJAN - KITNA VISARJAN

SHIKSHA - KITA SRIJAN - KITNA VISARJAN by अनुपम मिश्र -ANUPAM MISHRAपुस्तक समूह - Pustak Samuh

लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :

अनुपम मिश्र -ANUPAM MISHRA

No Information available about अनुपम मिश्र -ANUPAM MISHRA

Add Infomation AboutANUPAM MISHRA

पुस्तक समूह - Pustak Samuh

No Information available about पुस्तक समूह - Pustak Samuh

Add Infomation AboutPustak Samuh

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
हैं। उनके नाम देसी भी हैं, विदेशी भी। पढ़ाने का पूरा शास्त्र जानने वाले आप सब उन नामों से मुझसे कहीं ज्यादा परिचित हैं। और इसमें भी शक नहीं कि निराशा के एक लंबे दौर में सांस लेते हममें से ज्यादातर को लगेगा कि ऐसा होता नहीं हैं। लेकिन दून या ऋषि जैसे परिचित नामों से अलग हट कर पहले हम एक गुमनाम स्कूल की यात्रा करेंगें आज। स्कूल का नाम नहीं पर वहां पहुंचने के लिए कुछ तो छोर पकड़ना पड़ेगा ना। इसलिए गांव के नाम से शुरू करते हैं यह यात्रा। गांव है-- लापोड़िया। जयपुर जिले में अजमेर के रास्ते मुख्य सड़क छोड़कर कोई 20-22 किलोमीटर बाएं हाथ पर। यहां नवयुवकों की एक छोटी-सी टोली कुछ सामाजिक कामों में, खेलकूद में, भजन गाने में लगी थी। गांव में एक सरकारी स्कूल था। पर सब बच्चे उसमें जाते नहीं थे। शायद तब सरकार को भी 'सर्व शिक्षा अभियान' सूझा नहीं था। गांव में पुरखों के बने तीन बड़े तालाब थे, पर वे न जाने कब से टूटे पड़े थे। बरसात होती थी पर इन तालाबों में पानी नहीं टिकता था। अगल-बगल से बह जाता था। इन्हें सुधारे कौन। पंचायत तो ग्राम विकास की योजनाएं बनाती थी! और उन योजनाओं में यह सब तो आता नहीं था। गांव में पशु काफी थे- बकरी, गाय, बैल। और चराने के लिए ग्वाले थे। ग्वाले ज्यादातर बच्चे ही थे, किशोर, जिन्हें आप सब शायद “दसरा दशकः' के नाम से भी जानते हैं। गोचर था जरूर पर हर गांव की तरह इस पर कई तरह के कब्जे थे। घास-चारा था नहीं वहां। इसलिए ये ग्वाले पशुओं को दर-दर चराने ले जाते थे। नवयवकों की छोटी-सी टोली इन्हीं बच्चों में घमती थी। किसी पेड़ के नीचे बैठ उन्हें भजन सिखाती, गीत गवाती। इस टोली के नायक लक्ष्मणसिंहजी से आप पूछेंगे तो वे बड़े ही सहज ढंग से बताते हैं कि कोई बड़ा ऊंचा विचार नहीं था हमारे पास। न हम नई तालीम जानते थे, न पुरानी तालीम और न किसी तरह की सरकारी तालीम। शिक्षा का कहने लायक कोई विचार हमें पता नहीं था। यह किस्सा है सन्‌ 1977 का। दिन भर ऐसे ही गाते-बजाते पशु चराते। एक साथी थे गोपाल टेलर। इतनी अंग्रेजी आ गई थी कि दर्जी के बदले टेलर शब्द ज्यादा वजन रखता है, बस। तो गोपाल टेलर को लगा कि दिन में तो ये सब काम होते ही हैं, रात को एक लालटेन जला कर कुछ लिखना-पढ़ना भी तो सीखना चाहिए। सरकारी स्कूल था पर उसमें तो भरती होना पड़ता था, रोज दिन को जाना पड़ता था। रात को कोई क्यों पढ़ाएगा? सरकारी शाला के समानांतर कोई रात्रि शाला खोलने जैसी भी कोई कल्पना नहीं थी। सरकार के टक्कर पर कोई प्राइवेट स्कूल भी खोलने की न तो इच्छा थी, न हैसियत। लक्ष्मणसिंहजी बताते हैं कि अच्छे विचारों को उतारने में समय लगता है, मेहनत लगती है, साधन लगते हैं - यह सब भी हमें कुछ पता नहीं था। नहीं तो हम तो इस सबसे घबरा जाते और फिर कुछ हो नहीं पाता। हमारे पास तो बस दो चीजें थीं-- धीरज और आनंद। गांव को पता भी नहीं चला और गांव में सरकारी स्कूल के रहते हुए एक “और” स्कूल खुल गया। हमें भी नहीं पता चला कि यह कब खुल गया। स्कूल खुल ही गया तो हमें पता चले उसके गुण। कौन से गुण, और क्‍या ये सचमुच गुण ही थे। यह सूची बहुत लंबी हैं। आप जैसे शिक्षाविद इन पर काम करेंगे तो हमें इन गुणों को और भी समझने का मौका मिलेगा। किससे करवाते उद्धाटन, क्यों करवाते उद्घाटन जब पता ही नहीं कि यह स्कूल कब खुल गया? स्कूल का नाम भी नहीं रखा था, नाम तो तब रखते जब होश रहता कि कोई स्कूल खुलने जा रहा हैं। जब बिना नाम का स्कूल खुल ही गया तो फिर तो यही सोचने लगे कि स्कूल का नाम क्यों रखना। क्या यह भी कोई जरूरी चीज है? नेताओं




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now