अकेले नहीं आते बाढ़ और अकाल | AKELE NAHIN AATE BAADH AUR AKAAL

AKELE NAHIN AATE BAADH AUR AKAAL by अनुपम मिश्र -ANUPAM MISHRAपुस्तक समूह - Pustak Samuh

लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :

अनुपम मिश्र -ANUPAM MISHRA

No Information available about अनुपम मिश्र -ANUPAM MISHRA

Add Infomation AboutANUPAM MISHRA

पुस्तक समूह - Pustak Samuh

No Information available about पुस्तक समूह - Pustak Samuh

Add Infomation AboutPustak Samuh

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
में, कहाँ कम, कहीं ज़्यादा, कहीं बहुत ज़्यादा भी. पर इन विभिन्न जगहों में रहने वाले समाज ने अपने वर्षों के अनुभव से इस कम-ज़्यादा वर्षा के साथ अपना जीवन कैसे ढालना है- यह ठीक से सीख लिया था. आज हम देखते हैं कि जलनीतियां बनायी जाने लगी हैं. पहले ऐसा नहीं होता था. समाज अपना एक जलदर्शन बनाता था और उसे कागज पर न छापकर लोगों के मन में उकेर देता था. समाज के सदस्य उसे अपने जीवन की रीत बना लेते थे. फिर यह रीत आसानी से टूटती नहीं थी. जलनींतियां आती-जाती सरकारों के साथ बनती-बिगड़ती रहती हैं. पर जलदर्शन बदलता नहीं. इसी रीत से उस क्षेत्र विशेष की फसलें किसान समाज तय कर लेता था. सिंचाई के लिए अपने साधन जुटा लेता था. अभी हमने जैसा बिहार के संदर्भ में देखा कि अंग्रेज़ों ने बिना उस इलाके को समझे रेल की पटरियां खूब ऊंची उठाकर बिछा दीं और गंगा और अन्य नदियों के विशाल मैदान को जगह-जगह रोक लिया. उस बड़े भू-भाग में पानी की बेरोकटोक आवक-जावक के लिए उन्होंने समुचित प्रबंध भी नहीं सोचा, उसे करने की बात तो कौन कहे. जब अंग्रेज़ हमारे यहां आये थे तब हमारे यहां एक भी सिविल इंजीनियर नहीं 61 #& भवन्स नवनीत + टिसंलर 0016 था पर सचमुच कश्मीर से कन्याकुमारी तक, पश्चिम से पूरब तक कोई 25 लाख छोटे-बड़े तालाब थे. इनसे भी ज़्यादा संख्या में ज़मीन का स्वभाव देखकर अनगिनत कुंए बनाये गये थे. वर्षा का पानी तालाबों में कैसे आयेगा, किस तरह के क्षेत्र से, यहां-वहां से बहता आयेगा- उसका आगौर अनुभवी आंखों ने नाप लिया जाता था. फिर यह पानी साल भर कैसे पीने का पानी जुटाएगा और किस तरह की फसलों को जीवन देगा- इस सबकी बारीक योजना कहीं सैकड़ों मील दूर बैठे लोग नहीं बनाते थे- वहीं बसे लोग उस क्षेत्र में अपना बसना सार्थक करते थे. यह परम्परा आज भी पूरी तरह से टूटी नहीं है, हां उसकी प्रतिष्ठा ज़रूर गिर गयी है, नये पढ़े-लिखे समाज के मन में. पर हमारे इस पढ़े-लिखे समाज को आज यह जानकर अचरज होगा कि हमारे देश की तकनीकी शिक्षा, सिविल इंजीनियरिंग की सारी आधुनिक शिक्षा की नींव में ये अनपढ़ माना गया, अंनपढ़ बता दिया गया समाज ही प्रमुख था. देश का पहला इंजीनियरिंग कॉलेज खुला था हरिद्वार के पास रुड़की नामक एक छोटे-से गांव में. और सन्‌ था 1847 . तब ईस्ट इंडिया कम्पनी का राज था. कम्पनी का घोषित लक्ष्य देश में व्यापार था. कम्पनी तो लूटने के लिए ही बनी थी. ऐसे में ईस्ट इंडिया कम्पनी देश में उच्च शिक्षा के झंडे भला क्यों. _झक्‍ह.+कछ/७७++ - - -कम्पनी के पास. थॉमसन गाड़ती. यह एशिया का पहला ब्हॉलेज ने कम्पनी को आश्वस्त उस दौर में आज के था, इस निज को यढ़रन्तें किया था कि यह गांवों के पश्चिमी उत्तर प्रदेश का बाला. तब इंग्लैंड में भी इस लोग इसे बना लेंगे. यह भाग एक भयानक तरह व्यय कोर्ड बॉलेज नहीं था... कोई ऐरी-गैरी, छोटी- अकाल से गुजर रहा था. रूड़ब्छी व्छे इस ऋऑल्ेज में मोटी योजना नहीं थीं यह अकाल का एक कारण इंग्लैंड से भी छात्रों व्ठा दल हरिद्वार के पास गंगा से एक था वर्षा का कम होना. पढ़न्रे के लिए भेजा गया था! नहर निकाल कर उसे कोई पर अच्छे कामों और अच्छे विचारों का अकाल पहले ही आ चुका था और इसके पीछे एक बड़ा कारण था- ईस्ट इंडिया कम्पनी की अनीतियां. सौभाग्य से उस क्षेत्र में, एक बड़े ही ' सहृदय अंग्रेज़ अधिकारी काम कर रहे थे. वे बह्मंं के उपराज्यपाल थे. नाम था उनका श्री जेम्स थॉमसन. लोगों को अकाल में मरते देख उनसे रहा नहीं गया. उन्होंने ईस्ट इंडिया कम्पनी के निदेशकों को एक प्रत्र लिख इस क्षेत्र में एक बड़ी नहर को बनाने का प्रस्ताव रखा था. ऊपर से उस पत्र का कोई जवाब तक नहीं आया. तब जेम्स थॉमसन ने तीसरे पत्र में अपनी योजना में पानी और अकाल, लोगों के कष्टों के बदले व्यापार की, मुनाफे की चमक डाली. उन्होंने हिसाब लिखा कि इसमें इतने रुपए लगाने से इतने ज़्यादा रुपए सिंचाई के कर की तरह मिल जाएंगे. ईस्ट इंडिया कम्पनी की आंखों में चमक आ गयी. मुनाफा मिलेगा तो ठीक. पर बनायेगा कौन ? कोई इंजीनियर तो है नहीं ७७ 200 किलोमीटर तक के इलाके में फैलाना था. वह योजना खूब अच्छे ढंग से पूरी हुई. तब थॉमसन ने कम्पनी से इसकी सफलता को देखते हुए इस क्षेत्र में इसी नहर के किनारे रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज खोलने का भी प्रस्ताव रखा. इसे भी मान लिया गया क्योंकि थॉमसन ने इस प्रस्ताव में भी बड़ी कुशलता से कम्पनी को याद दिलाया था कि इस कॉलेज से निकले छात्र बाद में आपके साम्राज्य का विस्तार करने में मददगार होंगे. यह था सन्‌ 1847 में बना देश का पहला इंजीनियरिंग कॉलेज. देश का हो नहीं, एशिया का भी यह पहला कॉलेज था, इस विषय को पढ़ाने वाला. और आगे बढ़ें तो यह भी जानने लायक तथ्य है कि तब इंग्लैंड में भी इस तरह का कोई कॉलेज नहीं था. रुड़की के इस कॉलेज में कुछ साल बाद इंग्लैंड से भी छात्रों का एक दल यहां पढ़ने के लिए भेजा गया था। तो इस कॉलेज कीं नींव में हमारा क्रिनम-... “/“।..._॒_......_ .्‌॒...॒...तट६.य....॒..न्‍६६ ....हल्‍.ल्‍.. . ......_._॒___ (____.__>अमीशशीशशकक कक कक कक कक कफ क कट की कीट मटर भि मनन मिननिनननन तक




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now