चलते फिरते | CHALTE FIRTE

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गिजुभाई बढेका -GIJUBHAI BADHEKA

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रल-मिल जाने की इनकी आदत नहीं थी। जब तक कोई इन्हें दूसरे बालकों से मिला न दे, कोई काम सौंप न दे, तब तक इनकी अलग खड़े रहने की ही आदत थी। इनकी इस आदत को दूर करने के लिए सख्ती बरती गई थी। सख्ती बरतने से जब इनकी आदत दूर हो गई तो इनका भीतर से काम करने का मन बाहर आया। इन लोगों ने काम में हिस्सा लिया और काम के आनंद से आनंदित होकर काम सौंपने वाले व्यक्ति को--अर्थात्‌ मुझे अपने अच्छे मित्र की तरह पहचानने लगे। ऐसे में अगर वे मेरे पास आकर जोर से लिपट न जाएं तो कैसा आश्चर्य ? मुझे लगा कि आज तलक मैंने जो इन्हें 'जबरन” कक्ष में दाखिल नहीं किया और काम नहीं सौंपा, तो वह मेरी ही गलती थी। 1 गा तो कहानी कहना अच्छा लगता है। “प्रदर्शन पद्धति” की बातें करना मैं शेक्षाशास्त्रियों और चिंतकों पर छोड़ता हूँ। जिस कला में हम विकसित होंगे, वही तो करेंगे न ? बेकार ही दूसरों के क्षेत्र में क्यों दखल दें ? कहानी ही लिखी जाए! एक बार इस वेग को ही दौड़ लेने दिया जाए, तभी दूसरे विचार अच्छी तरह से लिखे जोएंगे। जब “बालक व पुनर्जीवन के निमित्त' यों सोच कर लिखने बैठते हैं तो सारे विचार हवा हो जाते हैं, लगता है जैसे हम इस बारे में कुछ भी नहीं जानते | जब हवा के प्रतिकूल चलना पड़े तो भला नाव कैसे चल पाएगी ? आज तो मैं अपने (कहानी) कहने के पवन से पाल भर कर नाव को हॉँके जा रहा हूँ। लेकिन जो लिखने में आ रहा है उसे “यों प्रस्तुत करना चाहिए' तथा “उससे पार निकल जाना चाहिए', इन बातों के लिए स्वयं को कहाँ रोकूँ ? पर मैं भी कहानी कहने के बजाय विश्लेषण-विवेचन में कहाँ फैंस गया ? वस्तुतः मैं विवेचन-विश्लेषण भी करना चाहता हूँ और वह भी लिखकर या कह कर ! तो अब कहानी ही लिख रहा हूँ। कहानी एक था चिड़ा; और एक थी चिड़िया। दोनों मिलकर घोंसला बना रहे थे। एक तिनका चिड़िया उठाकर लाती, एक तिनका चिड़ा उठाकर लाता। घर में एक झरोखा था। उसमें एक घोंसला था। बड़ा ही सुंदर और मजेदार 28 चलते-फिरते घोंसला। उसके अंदर गोलाकार पाँखें और कई चीजें संजाई हुई थीं, इसीलिए बड़ा नरम-नरम था घोंसला। छोटी बेटी बोली : “माँ, यह चिड़िया घोंसला क्‍यों बना रही है ?' माँ : अंडे रखने के लिए |! . अच्चे : 'अंडे कब रखेगी ?. माँ : “अभी दो-एक दिनों में | बच्चे लोगं बार-बार निसैनी लगाकर चढ़ते और अंडों की तलाश करते | : बड़े भैया का नाम बचु, एक बहन का नाम टीकु और एक का नाम बबली | बीच में बातचीत बबली बोली : “मुझे बबु बहन कहिए ना, बबली क्यों कहते हैं ?' बचु, बबु, और टीकु ये मेरे बच्चे हैं। मैंने इनको ही कहानी के पात्र के रूप में ढाल दिया था। कहानी सुनते-सुनते जब बबु को बबली कह दिया गया तो वह उपर्युक्त रीति से बोल उठी थी। बबु को बबली कहना जरा भी नहीं रुचता। अगर भूल से कहीं कह दें तो सुधरवाती है। उसको अपना आदर करवाना इतना ज्यादा पसंद है कि वह दूसरों को भी आदरपूर्वक संबोधित करती है। बचु को बड़े भैया, सुशीला को बड़ी बहन और टीकु को नीलू कहना हर्गिज नहीं भूलती। इन सम्मान-सूचक शब्दों का प्रयोग इसी ने शुरू किया है और खुद कभी भूलकर भी नहीं बोलती | स्वयं को आदर दिलाने के लिए दूसरों को आदर देने की बात बहुत लोग समझते हैं। एक छात्रालय के गृहपति विद्यार्थियों को इसलिए पहले नमस्कार करते थे ताकि विद्यार्थी उन्हें पहले नमस्कार करने लग जाएँ। मैंने भी इस विधि को आजमा कर देखा था। पर हुआ यह, कि जब मैं नमस्कार नहीं करता तो विद्यार्थी भी नमस्कार नहीं करते इसलिए मैंने आदर देने के संस्कार देने की विधि को त्याग दिया | चलते-फिरते 29




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