हिंदी चेतना ,अंक -46, अप्रैल -जून 2010 | - MAGAZINE - ISSUE 46 - APRIL-JUNE 2010

- MAGAZINE - ISSUE 46 - APRIL-JUNE 2010 by पुस्तक समूह - Pustak Samuhविभिन्न लेखक - Various Authors

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हैं, उसकी पहुंच शायद हमलोगों तक नहीं है। दूसरी बात कि लिख-पढ़कर किसी की भी समझ को फिर भी दुरुस्त किया जा सकता है या फिर खुद भी दुरुस्त हुआ जा सकता है। लेकिन जहां पूरा का पूरा मामला नीयत पर आकर ठहर जाए वहां आप इस बात की बिल्कुल भी उम्मीद नहीं कर सकते कि कुछ बदलने की गुंजाइश है। मृणाल पांडे इंटरनेट और ब्लॉग पर लिखी जा रही बातों, कंटेंट और मटीरियल को कितना पढ़ती है, ये मैं नहीं जानता । मुझे नहीं पता कि न्यू मीडिया पर बात करते हुए वो जब भी कुछ लिखती हैं, तो कैंपस में चेले-चुगों की तरह सुनी-सुनायी बातों के आधार पर बात करनेवाले मास्टरों की तरह ही राय बना लेती हैं या खुद भी उससे गुजरती हैं। लेकिन इतना तो तय है कि अगर वो पढ़ती भी हैं तो चुपचाप वहां से होकर गुजर जाती हैं। वो इस बात की जरूरत कभी भी महयूस नहीं करतीं कि अगर लिखी गयी बातों या पोस्ट को लेकर असहमति है तो सीधे कमेंट के जरिये अपनी बात रखें। यानी मृणाल पांडे वर्चुअल स्पेस में लगातार लिखनेवाले लोगों से संवाद बनाने के बजाय उनके प्रति व्यक्तिगत राय बनाना ज्यादा पसंद करती है। उसके बाद अखबारों के संपादकीय या फिर कॉलम में उसे उंड़ेल देना ज्यादा जरूरी और फायदेमंद मानती हैं। नमिता जोशी ने 110://010258.198ए791#%/971165 4 का ०४.००॥ पर हमारे वर्तमान समाज में लड़कियों की दशा की एक अलग ही तस्वीर प्रस्तुत की है “वो फोन पर किससे बातें करती रहती है ?” के जस्ये। वे लिखती हैं : देख...देख...फिर से फोन पर बातें कर रही है। दिन भर बालकनी में कान पर कंधे के सहारे फोन अटका कर इधर से उधर चक्कर लगाती रहती है और हंस-हंसकर बात करती रहती है। ये थकती नहीं है ? इसकी ममी कुछ नहीं कहती ? पता नहीं, किससे बातें करती रहती है? अरे यार, और कौन होगा, बॉयफ्रेंड ही होगा उसका...। अच्छा ? तुझे कैसे पता चला ? ये भी कोई सवाल है, उसकी बॉडी लैंग्वेज से कुछ समझ नहीं आता क्या? अच्छा, और वो जो अपने डॉगी को सुबह शाम तेज-तेज कदमों से घुमाती है। पैरों से तेज तो उसकी ज़बान चलती है फोन पर, कचर- कचर...ओह नो! और वो जो शाम को ऑफिस से घर लौटते वक्त बस से उतरते ही फोन घुमाती है और घर पहुंचने से ठीक पहले फोन काट देती है, उसका ता 14 ल बच्चे का कामयाब होना ज़रूरी है या अच्छा इंसान होना? के मार्फत गहरे और गंभीर सवाल उठाती हैं। वे पूछती हैं : हम हमेशा अपने बच्चों में कामयाबी ही क्यों तलाशते है, इंसानियत क्‍यों नहीं, सलाहियतें क्‍यों नहीं, नेकियाँ क्‍यों नही, क्रिएटिविटि क्‍यों नहीं 2 यह भी विचार विचलित करता रहा कि क्यों हम अपने बच्चे को सर्वगुण सम्पन्न देखना चाहते हैं। उससे अधिक अपेक्षाएं करके क्या हम उसे उनकी उम्र से बड़ा नहीं बना रहे हैं। उसका बचपन नहीं टैंद टहे हैं। ये तो समझना ही पड़ेगा कि कच्चा मभिद्री का घड़ा अपने पानी नहीं टिका सकेगा। हम बच्चों से बड़ों जैसी उम्मीदें क्यों करते हैं? क्या ? बाप रे, कैसी लड़की है ? कम ऑन अंकल, गिव मी अ ब्रेक | सब के सब फोन पर बात करती लड़की की बॉडी लैंग्वेज के एक्सपर्ट क्‍यों बन जाते हो ? वैसे यही हाल मेरे जिम का भी तो है। यूं तो सब यंगस्टर्स आते हैं वहां, लेकिन भेजे में वोही कीड़ा। उस लड़की के फोन की घंटी बार-बार कौन बजाता है? फिर वो एक्सरसाइज के बीच-बीच में ब्रेक लेकर फोन पर बात करती है। पूरे जिम में हल्ला। ये कियसे बातें करती है रोज ? मैरिड है। फोन पर पति तो नहीं होगा। हो ही नहीं सकता जी, इतनी देर तक इसकी कचर-कचर पति क्यों सुनेगा भला? बॉयफ्रेंड ही होगा। ओह माई गॉड.... कैसी लड़की है? शब्द-निधि 1170:/819309349710॥#1.0102590.007 पर “बच्चे का कामयाब होना ज़रूरी है या अच्छा इंसान होना ?” के मार्फत गहरे और गंभीर सवाल उठाती हैं। वे पूछती हैं : हम हमेशा अपने बच्चों में कामयाबी ही क्‍यों तलाशते हैं, इंसानियत क्‍यों नहीं, सलाहियतें क्‍यों नहीं, नेकियाँ क्यों नहीं, क्रिएटिविटि क्यों नहीं ? यह भी विचार विचलित करता रहा कि क्यों हम अपने बच्चे को सर्वगुण सम्पन्न देखना चाहते हैं। उससे अधिक अपेक्षाएं करके क्या हम उसे उसकी उम्र से बड़ा नहीं बना रहे हैं। उसका बचपन नहीं रैंद रहे हैं। ये तो समझना ही पड़ेगा कि कच्चा मिट्टी का घड़ा अपने पानी नहीं टिका सकेगा। हम बच्चों से बड़ों जैसी उम्मीदें क्‍यों करते हैं? अप्रैल-जून 2010 अंशुमाली रस्तोगी 1170:/भाशाप्रा191701057900017.01025/00 +.००॥ ने पूछा है कि क्यों नहीं लिखतीं महिलाएं व्यंग्य ?' इस सवाल का जवाब उतना ही कठिन है जितना कि यह सवाल। उनकी कुछ स्थापना रोचक हैं, गौर करें : व्यंग्य लेखन में पुरुष का ही दबदबा क्यों बना रहता है ? लेखन के जिन खांचों के भीतर रहकर महिलाएं लिखती हैं, उनमें स्त्री-विमर्श तो हर कहीं मौजूद है, परंतु उसमें व्यंग्य कहीं शामिल नहीं होता। अगर महिलाएं स्त्री-विमर्श को चलाना ही चाहती हैं तो उसे व्यंग्य के माध्यम से क्‍यों नहीं चलातीं ? व्यंग्य को स्त्री-विमर्श में शामिल क्‍यों नहीं करतीं ? पिटी-पिटाई लकीर पर चलने वाले स्त्री- विमर्श में केवल भाषाई उद्दंडता और पुरुष-वमन के सिवाय कहीं कुछ भी वैचारिक या गंभीर नहीं है। स्त्री-विमर्श की चिंगारी को हर वक्त भड़काए रखने के लिए उसमें देह को और जोड़ दिया जाता है, ताकि प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की दुकानदारी मौज से चलती रही। आपको भले ही न लगे लेकिन मुझे यह देहवादयुक्त स्त्री-विमर्श हास्यास्पद ज्यादा नजर आता है। मेरा यह मानना है कि स्त्री-विमर्श पर चली रही कथित बौद्धिकता अपने आप में ही एक व्यंग्य है। संजय बेंगाणी ने 110://एएए/.क13/९8581.0011 /]1091101/2951 564 पर अत्यंत ही रोचक मुद्दा उठाया कि 'ओ रे बन्धू मत लिखियो ब्लॉग | वे




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