खुली आँखें खुले डैने | KHULI AANKHEIN, KHULE DAINE

Book Image : खुली आँखें खुले डैने  - KHULI AANKHEIN, KHULE DAINE

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केदारनाथ अग्रवाल -KEDARNATH AGRAWAL

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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के काम लाते हैं, वह अस्तबल में रखे जाते हैं। ऐसा बरसों-बरसों से चला आ रहा है। यहाँ तक कि शेर-चीते और हिरन भी सहवासी बनाये जाते हैं। परन्तु यह सब पालना-पोषना आत्मीय सम्बद्धता के अन्तर्गत नहीं आता। आत्मीय सम्बद्धता तो वह होती है जब आदमी, पशु-पक्षी, प्रकृति आदि की इकाइयों को अपनी आत्मीयता में लाकर, पूरी तरह से अपनी मानवीय चेतना देकर, उनकी आत्मीयता प्राप्त करता है। मैंने, शशक, कबूतर, बया (पक्षी) पेड़, नदी आदि को, अपनी मानवीय चेतना की आत्मीयता देकर अपना बनाया है और उनकी आत्मीयता (अस्तित्व की) प्राप्ति की है। इसीलिए मैं, इस उम्र में भी, इस तथाकथित असार संसार में, जीवंत जी रहा हूँ और अपने आपको महाकाल से बचाये हूँ। न गुमसुम रहा हूँ, न गुमसुम रहूँगा। न सुषुप्त हुआ हूँ, न चेतना से कटा शून्य में समाहित होता हूँ। मेरी अनेक कविताएँ, ऐसी ही सम्बद्धता की--मानवीय बोध की आत्मीय सृष्टियाँ हैं। यह सहज- साधारण लगने वाली कृतियाँ मेरी प्राणवंत कविताएँ हैं। मैं इनमें जीवित हूँ, इनसे बाहर भी जीवित हूँ, इन्हीं की बदौलत जीवित हूँ। मैंने, बार-बार, अपने ज्ञानानुभव से यह प्रतिपादित किया है कि कविता की सृष्टि आदमी की चेतना करती है। चेतना की बनाई हुई इस काव्य-सृष्टि में, कवियों ने, न जाने कितना वस्तु-निष्ठ और आत्म-निष्ठ सत्य बिम्बित और रूपांकित किया है कि कविता का भंडार अक्षय और समृद्ध -से- समृद्धतर होता गया है। इस भंडार को देखते ही बनता है, आश्चर्य से चकित रह जाना पड़ता है। मैंने भी अपनी कविताओं से, इस काव्य-भंडार की श्री-वृद्धि की है। इसका मुझे एहसास है। मैने छोटी कविताएँ लिखकर इस एहसास का पूरा- पूरा फायदा उठाया है। इस संकलन की पहली कविता है तो केवल चार चरणों की, किन्तु इस चार चरणों में मैंने अपने देश की वर्तमान स्थिति का बोध कराया है। कौआ एक पक्षी है। हर गाँव और शहर में 'काँव-काँव' करते पाया जाता है, काला कलूटा है, और किसी प्रकार से मन को नहीं मोहता। पहले, राम के युग में, इसी ने तो सीताजी को चोंच मारी थी। ऐसी मान्यता, तब से अब तक, प्रचलित चली आती है। विडम्बना यह है कि इसे तो दाल-भात खाने को मिलता है। परन्तु, आदमी को, दाल-भात नसीब नहीं होता। इसके विपरीत, “हौआ'---डर--आतंक आदमी को खाये डालता है। और नेता भी, आज के युग के, नाक कटाये, पैसे-पर-पैसा यानी धन-ही-धन बटोरते रहते हैं और जनता भी ऐसी है कि ऐसे ही नेता को, पतंग की तरह, आसमान में चढ़ाये रहती है। न कटने वाली पतंग बनाये सुरक्षित रखती है। ऐसी भयावह स्थिति खुलीं आँखें खुले डैने / 15




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