नव्या -फरवरी-अप्रैल :2013 | NAVYA- FEB-APRIL 2013

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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की यात्रा' आदि शीर्षकों से इन वृत्तान्तों का बड़ा रोचक और सजीव वर्णन प्रस्तुत किया है।'” भारतेन्दु के बाद यात्रा साहित्य की एक अखण्ड परम्परा देखने को मिलती है। इन यात्रा-वृत्तों में हिन्दी प्रदेश में निवास करने वाले विशाल मानव-समुदाय के मानसिक क्षितिज की सूचना मिलती है। इन रचनाओं में पं0 दामोदर कृत भमेरी पूर्व दिग्यात्रा', देवी प्रसाद खत्री कृत 'रामेश्वर यात्रा' और 'बदरिकाश्रम यात्रा', शिव प्रसाद गुप्त कृत पृथ्वी प्रदक्षिणा' और पं0 राम नारायण मिश्र कृत “यूरोप यात्रा में छः मास' आदि विशेषतः उल्लेखनीय हैं। गवतशरण उपाध्याय, रामधारी सिंह 'दिनकर', नागार्जुन, प्रभाकर माचवे, राजा बल्‍लभ ओझा आदि अनेक यात्रा प्रेमी तथा जन्मजात सैलानी प्रवृति के यायावर सामने आए। इन्हीं के द्वारा हिन्दी के यात्रा-साहित्य की श्री वृद्धि हुई। महत्त्व के यात्रा-वृत्तों में राहुल सांकृत्यायन कृत 'मेरी तिब्बत यात्रा', मेरी लद्दाख यात्रा', किन्नर देश में' और “रूस में पच्चीस मास; रामबृक्ष बेनीपुरी कृत पैरों में पंख बांधकर' और उड़ते चलो-उड़ते चलो”; यशपाल कृत 'लोहे की दीवार के दोनों ओर; अज्ञेय कृत अरे यायावर रहेगा याद' और एक बूँद सहसा उछली'; डॉ0 भगवतशरण उपाध्याय कृत कलकत्ता से पोलिंग' और 'सागर की लहरों पर'; रामधारी सिंह दिनकर' कृत देश- विदेश'; प्रभाकर माचवे कृत “गोरी नज़रों में हम' प्रमुख हैं। परवर्ती लेखकों में मोहन राकेश कृत आखिरी चट्टान तक! प्रभाकर द्विवेदी कृत 'पार उतरि कहूँ जइहौं; डॉ0 रघुवंश कृत 'हरी घाटी' तथा धर्मवीर भारती कृत “यादें यूरोप की' आदि रचनाओं की अधिक चर्चा हुई। यदि देखा जाय तो पिछले बीस-बाईस वर्षों से हिन्दी का यात्रा- साहित्य अधिक विकास सांस्कृतिक यात्रा-व॒ृत्त भी अब अधिक लिखे जाने लगे हैं। हमारे साहित्यकारों को विदेशी भ्रमण की सुविधाएं भी अधिक मिलने लगी हैं फलतः यात्रा-वृत्‌ तानन्‍्तों की गिनती में भी इज़ाफा होने लगा है। अमृता प्रीतम कृत “इक्कीस पत्तियों का गुलाब'; दिनकर कृत 'मेरी यात्राएं'; डॉ0 नगेन्द्र कृत अप्रवासी की यात्राएं!'; श्रीकान्त शर्मा कृत अपोलो का रथ; गोविन्द मिश्र कृत 'धुन्ध भरी सुर्खी; कमलेश्वर कृत 'खण्डित यात्राएं!; विष्णु प्रभाकर कृत ज्योति पुंज हिमालय'; रामदरश मिश्र कृत 'तना हुआ इन्द्र धनुष” आदि कृतियां इस विधा की उपलब्धि मानी जाती हैं। यात्रा-व॒त्तों में हम दृश्यों, स्थितियों और उनके अनुकूल-प्रतिकूल लेखक की मानसिक प्रतिक्रियाओं से भी परिचित होते हैं। यही कारण है कि यात्रा-वृत्तों का स्वरूप भी लेखक की रुचि, संस्कार, संवेदनशीलता और मानसिकता के अनुसार पृथक्‌-पृथक्‌ ढल जाता है। विगत डेढ़ दशकों से अन्तर्जाल पर स्थित ब्लॉगों में हिन्दी में यात्रा-वत्त लेखन की आश्चर्यजनक, परिमाणात्मक अभिवृद्धि देखी जा रही है। विभिन्न ब्लॉगों पर हिन्दी में लिखे हुए यात्रा-वृत्तान्त न केवल परिमाण में भरपूर हैं बल्कि गुणात्मकता में भी अद्वितीय हैं। किन-किन का नाम लिया जाये चाहे वे समीरलाल 'समीर'” के यात्रा-संस्मरण हों या मनोज कुमार” के, डॉ. विजय कुमार शुक्ल' के या शिखा वार्ष्णय” के नीरज जाट” के हों अथवा सन्दीप पवार” के, सुनील दीपक के हों या मनीष कुमार ? के सभी एक से एक बेजोड़ हैं। ब्लॉगों पर स्थित यात्रा-वत्तान्तों में फरवरी - अप्रैल 2013 15 उत्बृष्ट यात्रा-वृत्तान्त के लिए आवश्यक सभी तत्त्व मौज़ूद देखे जा रहे हैं किन्तु पता नहीं क्‍यों अभी तक साहित्यिक महाकाश पर इन्हें टिमटिमाते तारों का दर्ज़ा भी नहीं हासिल हो पाया। मैं तो कहूँगी कि यह हमारी ही दृष्टि का दोष है जो हमारी निगाहें वहां तक नहीं पहुँच रही हैं अथवा पुस्तकाकार प्रकाशकीय सामग्री पर हमारी अन्धश्रद्धा अभी तक बनी हुई है जब हम एक विश्वग्राम का स्वप्न साकार करने में लगे हैं। ब्लॉगों की ख़ासियत यह होती है कि सम्पूर्ण विश्व में कहीं से भी ब्लॉग पर प्रकाशन किया जाय वह त्वरित क्रम में सर्वत्र सबको सहज सुलभ हो जाता है और हम न जाने किस मोह में फँसकर समृद्धितर हो रही इस साहित्यिक धरोहर के प्रति आँखें मूंदे हुए हैं। ब्लॉगों पर पर्याप्त और गुणात्मक क्षमता से युक्त हिन्दी में यात्रा-व॒ृत्तान्त तथा अन्य साहित्यिक सामग्रियां उपलब्ध हैं जिन्हें शोध और विचारणा का विषय बनाया ही जाना चाहिए। इक्कीसवीं सदी में हिन्दी साहित्य ने अभिव्यक्ति की कई नयी- नयी राहों को खोजा, अपनाया। इसे समकालीन रचनात्मक परिदृश्य से परखा जा सकता है। पुनर्पाठ, विमर्श, प्रतिरोध, अधिक लोकततन्त्र अनेक ऐसे धरातल हैं जिनमें नये और पुराने के अन्तर को हम भली-भाँति समझ सकते हैं। नयी सदी में हमारे रचनाकारों ने कहानी, उपन्यास, आलोचना से भिन्न गद्य के अभिव्यक्ति-रूपों में अपनी सक्रियता तथा हलचल बढ़ाई है। न केवल इतना ही बल्कि कई बार वे नये रूपों को आविष्कृत करने का जोखिम भी उठा रहे हैं। गद्य की जैसी समृद्धि और चहल- पहल पिछले कुछ वर्षों से दिखाई दे रही है वह विरल है। यात्रा- वत्तान्त में इस समय सशक्त लेखन किया जा रहा है। इस लेखन की जितनी यादगार पुस्तकें कुछ वर्षो में दर्ज हुई हैं उतनी सम्भवतः पिछली समूची सदी में नहीं हुई होंगी। ज़ाहिर है यह अत्युक्ति सा लगता कथन हम केवल हिन्दी साहित्य में कथेतर और गैर आलोचनात्मक गद्य प्रमुखतया यात्रा-वृत्तान्तों के बारे में कह रहे हैं। यहां ज़रा ठहर कर इस प्रश्न पर विचार करना अनुचित नहीं होगा कि यात्रा-व॒त्तान्त के इस वैभव की वजह क्‍या हो सकती है? क्‍या ऐसा है कि नये ज़माने में कुछ ऐसे अनुभव और संवेदनाएं रचनाकारों की दुनिया में शरीक हो चले हैं जिनकी अभिव्यक्ति कविता, कथा, नाटक से इतर रूपाकारों में ही सम्भव हो सकती है? यह मुमकिन है; क्योंकि हमारे यथार्थ जगत में इधर यथार्थ का ऐसा हिस्सा जुड़ा है जो गद्य की पुरानी शक्ल में प्रकट होने से इंकार करता है। इस बात की पुष्टि इससे भी हो रही है कि इधर के समर्थ प्रतिभाशाली कथाकारों ने महसूस किया है कि कथा का पारम्परिक ढाँचा अप्रासंगिक हो रहा है क्‍योंकि उससे मौज़ूदा वास्तविकता की सजीव, सार्थक उपस्थिति नामुमकिन सी हो चली है। अतः एक तरफ़ कथा के पारम्परिक ढाँचे को तोड़कर अपनी बात कही जा रही है तो दूसरी ओर कथा को छोड़कर भी अपनी बात कही जा रही है। मगर यह भी सम्भव है कि यह सक्रियता अपनी मूल विधा में अधिक समय तक काम करने के चलते पैदा हुई ऊब का परिणाम हो या यह भिन्न कुछ कर डालने की ज़िद का नतीजा या इसका उत्स रचनाकारों की उस अक्षमता में हो जिसमें वे मूल विधा में अपनी बात को अच्छी तरह कह ४७५७.॥७५७४५५.1॥




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