प्राथमिकशाला में कला-कारीगरी की शिक्षा -भाग 2 | PRATHMIK SHALA MEIN KALA KARIGIRI KI SHIKSHA- VOL 2
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
54
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
गिजुभाई बढेका -GIJUBHAI BADHEKA
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पुस्तक समूह - Pustak Samuh
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)इस वृत्ति को तृप्त करने वाला व्यक्ति परिणाम पर नजर नहीं रखता अपितु
कार्य-कारण की खोज पर दृष्टि रखता है। अगर कांतिलाल इसी वृत्ति को तृत्त करने के
लिए कात रहा है तो वह अपनी खोजी बुद्धि--शास्त्रीय बुद्धि को विकसित कर रहा
है; और अगर चर्खा इस तरह की बुद्धि को विकसित करने का निमित्त बन जाता है तो
उसकी शैक्षिक महत्ता में अवश्य ही मानसिक-बीद्धिक शिक्षण संबंधी मूल्यवत्ता का भी
स्थान है। अर्थात् चर्खे से बौद्धिक शिक्षण मिलता है, यह मानना होगा।
ऊपर हम देख चुके हैं कि जब आदमी अपना पेट भर लेता है तब मन की
भूख को तूप्त करने की कोशिश करता है; मन की भूख जब संतुष्ट हो जाती है तब
उसे कुछ अन्य प्रकार की श्षुधाओं को तृप्त करने के लिए निकलना पड़ता है। कुसुम
किस वृत्ति से कात रही है ? आबाद और सुशीला के प्रयलों के पीछे क्या वृत्ति है ?
इन्दुमती तो आबाद में ही समा जाती है। क्या कुसुम ध्वनि संबंधी मनोभाव को तृप्त
करने के लिए कातती है? और आबाद एवं सुशीला नामक बालिकाएँ क्या रूप
संबंधी भावों की तृप्ति हेतु नहीं कात रही हैं? अगर यह सही है तो यह मानना
पड़ैगा कि चर्खे में कला-शिक्षण की शक्ति है। अर्थात् चर्खे का कला-शिक्षण में
महत्त्वपूर्ण स्थान है। पर ध्वनि संबंधी भावनाओं को यह कैसे तृप्त करता है ? इसमें
हमें कैसा संगीत सुनाई देता है? भला यह कहने की धृष्टता तो हम कैसे करें कि
कुसुम संगीत-प्रेमी है अतः चर्खे में संगीत सुनती होंगी ? यह भी कैसे कह सकते है
कि चर्खा कातते समय उनका गाने का मन करता है अतः चर्खा संगीत का एक वाद्य
है? लेकिन जब कुसुम चर्खे के स्वर की संगति में 'खरज खननन, तरज तननन,
मरज मननन गाती है तब तो हमें थोड़ा अनुमान लगाने का मन हो आता है कि
उसकी संगीतवृत्ति और चर्खे में कुछ मेल है। सत्याग्रह आश्रम के पंडित खरे ने चर्खे
के संगीत को लेकर एक लेख में लिखा है कि 'जिन-जिन प्रांतों में परंपरा से चर्खा
चलाया जा रहा है वहाँ असंख्य लोग उसके संगीत से मंत्रमुग्ध बने हैं। प्रख्यात
परिव्राजक स्वामी विवेकानंद जब पंजाब में गए थे, तो वहाँ की वृद्ध महिलाओं के
हाथ में क्रीडा करते चर्खे से निकलने वाली सो5हम्' ध्वनि सुनते ही उन्हें
समाधि-सुख मिल गया था, ऐसी बात उन्होंने एक स्थल पर कही थी । स्वामी
विवेकानंद संगीत-कुशल थे, यह बात तो सर्व-विश्वुत है। तभी तो उन्होंने पंजाबी
चर्खे का काव्यमय वर्णन किया था। तेलुगु लोगों के आंध्र प्रदेश में चलने वाले चर्खे
में आज भी संगीत सुनाई देता है। हमारे आश्रम में भी कई ऐसे मजेदार चर्खे हैं कि
28 प्राथमिक्र शाला में कला-कारीगरी की शिक्षा
उस्ताद का हाथ लगते ही उनसे श्रवण-मधुर एकश्रुति आवाज निकलती है। छोटे
बालकों को तो ऐसा लगता है मानो आसपास कहीं भैंवरा गुंजार कर रहा हो अथवा
ऐसा लगता है मानो उनके खेलने के लट्टू को किसी ने पूछे बिना उठाकर चलाया
हो। उत्तम चर्खे की पंखड़ियाँ जहाँ ताल के नियमानुसार हवा को काटती हुई जाती
हैं, तो वहाँ हवा में सुंदर आंदोलन शुरू हो जाता है मानो मरुदूगण का वूंद मधुर
आलाप भर रहा हो।' पंडित खरे के उपर्युक्त शब्दों की सत्यासत्यता के विषय में
हम कुछ भी नहीं कह सकते | लेकिन जब कभी कुसुम चर्खा कातते समय गीत गाने
को प्रेरित होती है और चर्खे के स्वर से गीत उपजाती है, चर्खे को सुनने के लिए ही
मानो एकतान हो जाती है, तब-तब लगता है कि पंडितजी के शब्दों के विरुद्ध कुछ
भी नहीं कहा जा सकता।
अब हम सुशीला और आबाद के पास चलते हैं। दोनों सहेलियाँ रूप की
पुजारी हैं, यह बात इनके चित्रकला के शौक से जाहिर है। इस सचाई को हमें चर्खे
के शैक्षिक महत्त्व में बाधक नहीं बनने देना चाहिए। हकीकत यह है कि आबाद तो
मानों सूत कातने के लिए ही चर्खा चलाती है। अभी उसमें ज्यादा तादाद में सूत
कातने का लोभ नहीं जागा। सुशीला भी बढ़िया सूत कातने के लिए चर्खा चलाती
है। दोनों में से एक की भी ऐसी वृत्ति नहीं है कि अगर खराब सूत निकलता है तो
उसे रहने दे, उल्टे वे ख़राब सूत को तोड़ देती हैं। पर सुशीला ज्यादा मात्रा में
कातती है और साथ ही साथ उम्दा सूत कातती है। अन्यथा दोनों की वृत्ति एक
जैसी है। पूनी में से एक समान बारीक-बारीक सूत का धागा निकलते हुए देखने में
जो रूप-दृश्य की तृप्ति है उस तृप्ति का ये दोनों बालिकाएँ आस्वाद लेती हैं। इनकी
आँखें प्रकृति में रूप निहारना चाहती हैं। चित्रकला इनकी रुचि का विषय होने के
कारण ये दोनों रूप-प्रधान हैं। चर्खे पर भी बारीक-बारीक धागे के रूप में अपनी
आला का सूक्ष्म रूप कातती हैं। चर्खा इनकी रूप प्रकट करने की वृत्ति का साधन
होने से ये चित्र और चर्खे के बीच कोई पक्षपात नहीं करतीं।
नकल करना छोड़कर जब भगवानलाल चर्खा चलाता है तो वह बल-वृत्ति
को संतुष्ट करना चाहता है, पढ़ने का काम छोड़कर जब कांतिलाल चर्खा चलाने
जाता है तो वह ज्ञान-वृत्ति को संतुष्ट करना चाहता है; उछल-कूद, पढ़ने-लिखने या
गधों के पीछे दौड़ने का काम छोड़कर जब मूलचंद कत्ताई करने लगता है तो वह
शिक्षण में चर्खे का स्थान 29
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