फूल नहीं रंग बोलते हैं | PHOOL NAHIN RANG BOLTE HAIN

PHOOL NAHIN RANG BOLTE HAIN by केदारनाथ अग्रवाल -KEDARNATH AGRAWALपुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धूप पिये पानी लेट है... प्राप्य से परे अप्राप्य की ओर... पड़ने को पड़ गयी है तरंगित सर्प तुम्हें पाने के लिए तुम मेरे लिए नहीं... कोई है कि देखे सलीब ऐसा भी हुआ है कभी शमशेर--मेरा दोस्त! आश्चर्य है कि वह है-- अजीब बात है... सत्य और असत्य न आदमी है-- उसे घमंड है कि... उसका न्याय ... न्याय बाँटती है... हम हो गये हैं बौने... एक ओर... कंठ से नहीं-- ठप्प कर दिया गया है अब अब तक... सड़कें अब इसान को... स्वर्ग गोबर-गनेश और महेश डूबती है आँखों से... वर्तमान मैं जिऊँगा मैंने कुछ पा लिया है दयालु हो गया है दीन मित्र 30 अक्टूबर, 1962 29 मार्च, 1963 27 अप्रैल, 1963 29 मार्च, 1963 10 अक्टूबर, 1963 10 अक्टूबर, 1963 10 अक्टूबर, 1963 10 अक्टूबर, 1963 17 अक्टूबर, 1963 15 अक्टूबर, 1963 19 अक्टूबर, 1963 19 अक्टूबर, 1963 19 अक्टूबर, 1963 22 अक्टूबर, 1963 30 अक्टूबर, 1963 30 अक्टूबर, 1963 30 अक्टूबर, 1963 10 दिसम्बर, 1963 12 दिसम्बर, 1963 12 दिसम्बर, 1963 12 दिसम्बर, 1963 11 दिसम्बर, 1963 11 दिसम्बर, 1963 13 दिसम्बर, 1963 21 मार्च, 1964 21 मार्च, 1964 15 मार्च, 1964 14 दिसम्बर, 1963 15 मार्च, 1964 10 अप्रैल, 1964 24 अप्रैल, 1964 'फूल नहीं, रंग बोलते हैं / 15 1 180 180 161 181 181 182 162 182 183 183 1९4 1धव व्व 185 185 185 186 186 186 187 187 187 188 168 168 169 189 169 190 190 190




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