समकालीन तीसरी दुनिया - सितम्बर 2016 | SAMKALIN TEESRI DUNIYA - SEPTEMBER 2016

SAMKALIN TEESRI DUNIYA - SEPTEMBER 2016 by पुस्तक समूह - Pustak Samuhविभिन्न लेखक - Various Authors

लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :

पुस्तक समूह - Pustak Samuh

No Information available about पुस्तक समूह - Pustak Samuh

Add Infomation AboutPustak Samuh

विभिन्न लेखक - Various Authors

No Information available about विभिन्न लेखक - Various Authors

Add Infomation AboutVarious Authors

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
के ऊपर मोदी की सरकार हाथ भी नहीं उठायेगी। गुजरात में घटित दलित दमन की इस घटना को दलित उत्पीड़न की एकाकी घटना के रूप में भी नहीं देखा जाना चाहिए। हिंदुत्ववादी संगठन अपना दामन बचाने के लिए इसे अपवाद रूप दिखाने का प्रयास करने से बाज नहीं आने वाले। लेकिन हकीकत यह है कि मोटा समधियाल में घटित दलित विरोधी हिंसा तो गुजरात में दलितों पर जारी अत्याचारों की लंबी फेहरिस्त में सिर्फ ताजा कड़ी भर है। इसी साल जुलाई के आरंभ में पोरबंदर के समीपस्थ एक गांव में एक दलित किसान को सिर्फ इसलिए मार डाला गया क्योंकि वह गांव की साझा गोचर जमीन पर हल चलाने जा रहा था। अप्रैल में अहमदाबाद की स्थानीय अदालत में कार्यरत दलित लिपिक ने जातीय अपशब्दों की जहालत सहन करते रहने से बेहतर समझा कि वह आत्महत्या कर ले। 2012 में सुरेंद्र नगर में पुलिस की गोली से तीन दलित मारे गये थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी ने मातमपुर्सी के लिए जांच समिति बैठा दी। उस जांच समिति ने अपनी रपट भी सरकार को सौंपी थी किंतु आज तक वह जांच रपट सार्वजनिक नहीं की गई है। गांधी की इस जन्मस्थली में आज भी दलित मंदिरों में नहीं जा पाते। गांव की आम श्मशान भूमि में वे अपने मृतकों का अंतिम संस्कार नहीं कर सकते। चूंकि राज्य प्रशासन दलितों के खिलाफ जारी भेदभाव और उनके साथ होने वाली हिंसा को लेकर गंभीर नहीं रहा है, परिणाम है कि अपराधियों के मन में सजा का भय भी जाता रहा है। अत: गुजरात में दलितों के खिलाफ अपराध भी बेरोकटोक जारी है। इस बार जरूर कुछ हलचल सोशल मीडिया के कारण हो गई है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से लेकर दिल्‍ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, जनतादल (यूनाइटेड) के नेता शरद यादव, भाकपा नेता डी. राजा और माकपा नेता वृंदा करात जैसे बडे विपक्षी नेताओं ने भी इस मुद्दे पप सरकार के कान मरोडने में कोई कसर नहीं छोड़ी हे। लेकिन गुजरात सरकार की अहमन्यता देखिए कि सरकार के मुखिया इन नेताओं द्वारा की गई 16 उनकी सरकार की तीखी आलोचनाओं के बावजूद भी अपनी गलती मानने को कतई तैयार नहीं। परंपरागत रूप से गाय भारतीय संस्कृति में कृषि सभ्यता का मूर्त रूप रही है। यह प्रकृति के साथ मनुष्य के एकाकार संबंध का और कृषि केंद्रित अर्थ व्यवस्था में मनुष्य और पशुओं की पारस्परिक निर्भरता का प्रतीक रही है। लेकिन बदलती अर्थव्यवस्था में न कृषि आज किसी की चिंता का विषय है और न कृषक कर्म से जुड़े खेतिहर दलित-आदिवासी। किंतु कुछ लोग परिवर्तित आर्थिक परिस्थितियों से आंखें चुराकर आज भी गाय को धर्म विशेष से जोड़कर अपने गर्हित स्वार्थों का झुनझुना बजाते रहना चाहते हैं। दरअसल भाजपा के लिए गाय का मुद्दा कोई धार्मिक मुद्दा है ही नहीं, वह तो सिर्फ गाय के नाम पर धर्म की राजनीति करती है। वह उत्तर प्रदेश के चुनाव से ठीक पहले मतदाताओं का धर्म के नाम पर श्रुवीकरण करना चाहती है। यही प्रयास बिहार में भी उसने किया था जो असफल रहा। लेकिन उत्तर प्रदेश में उसे लगता है कि गाय चुनाव की वैतरणी पार लगवा देगी अतः गाय को राजनीति के दंगल में उतारा जा रहा है। लेकिन भाजपा भूल जाती है कि गाय का यह राजनीतिक दांव उसे दलित-आदिवासी मतों से भी वंचित कर सकता है। और गुजरात में उसका यह दांव उलया पड़ गया है। गुजरात के दलित आज भाजपा समर्थित गौरक्षा समितियों के खिलाफ सड़कों पर उतर आये हैं। गोरक्षा की यह भगवा ध्रुवीकरण की राजनीति सिर्फ गुजरात या उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं है। ऐसी अपुष्ट खबरें हैं कि बंगाल समेत कई राज्यों में भाजपा और उससे संबद्ध विभिन्‍न संगठन गौसर्वेक्षण की मुहिम पर काम कर रहे हैं। भगवा ताकतों द्वारा गौवध के झूठे मामलों में दलितों को मारने-पीटने और पुलिस से गिरफ्तार करवाने के उदाहरण गुजरात से बाहर भी मिल रहे हैं। जैसे 10 जुलाई को गुजरात की दलित हिंसा से ठीक एक दिन पहले कर्नाटक के चिकमगलूरू जिले के शांतिपुर गांव में स्थानीय बजरंग दल कार्यकर्ताओं द्वारा गौवध के झूठे आरोप में पांच दलितों को पीटा गया। और पुलिस न सिर्फ तमाशबीन बनी रही अपितु उसने उल्टा हिंसा के शिकार इन दलितों को ही गिरफ्तार कर के इन पर मुकदमा जड़ दिया। गायों के लिए आधार कार्ड जैसा कार्ड बनाने की भी चर्चा चलाई गई है। लेकिन इस विभाजनकारी राजनीति को सहन नहीं किया जा सकता। हम क्या खाते हैं और क्‍या व्यवसाय करते हैं, किसी को इस पर कानून की सीमा से बाहर जाकर सवाल उठाने का अधिकार नहीं है। सवर्णों की तरह दलितों को भी हमारे संविधान ने रोजगार की स्वतंत्रता का आधारभूत अधिकार दिया है। और वे सदियों से चमड़े और जूते का व्यवसाय करते आये हैं। हमारा पेट भरने के लिए हमें गोश्त मुहैया कराते आये हैं। देश की अर्थव्यवस्था में इनका महत्वपूर्ण योगदान है। और मुट्ठी भर लोगों की तथाकथित धार्मिक भावनाओं के लिए इन दलितों के साथ गौरक्षा के नाम पर मारने-पीटने की नृशंसता नहीं की जा सकती। असहाय पददलित लोगों को नंगा कर, उनको मार-पीट कर और उनका जुलूस निकाल कर अपनी तथाकथित धार्मिक संवेदनाओं को संतुष्ट करने वाले लोगों से क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि आपका अतिनाजुक हृदय, आपकी अतिभावुक संवेदनाएं तब क्‍यों नहीं आहत होतीं जब आधे से ज्यादा हिंदुस्तान भूखा सोता है? जब हमारे बच्चे कुपोषण और बीमारियों से मरते हैं? जब बड़े-बडे बांधों और खनन माफियाओं के कारण हजारों-लाखों एकड्‌ उपजाऊ जमीन या तो डूब जाती है या अपनी उर्वरता खो बंजर हो जाती है? आपकी इसी दलित विरोधी आधी-अधूरी संवेदना के कारण अंबेडकर को गांधीजी से कहना पड़ा था कि भारत कुत्ते-बिल्लियों का भी देश हो सकता है किंतु हम दलितों का नहीं। और स्वयं गांधीजी का भी मानना था कि अर्द्ध भूखे राष्ट्र के पास न कोई धर्म होता है, न कला और न संगठन। अत: दलितों पर हिंसा करने वाले स्वयंभू गौरक्षको, दलितों के पेट पर लात मार कर आप इस खुशफहमी में मत रहिए कि हम दलित भी आपके तथाकथित हिंदू राष्ट्र को अपना राष्ट्र मान सकते हैं। समकालीन तीसरी दुनिया / सितंबर 2016




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now