लिंगराज आज़ाद से बातचीत - नवंबर 2013 | LINGRAJ AAZAD SE BATCHEET - NOV 2013

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मोयाबीन का संकट होशंगाबाद जिले का एक दृष्टंत किसानी के इस संकट को समझने में मदद कर सकता है। सोयाबीन की फसल खराब होने के बाद दो वर्ष पूर्व वहां 11 से 14 अक्टूबर 2011 के बीच तीन किसानों ने आत्महत्या की । यह वह जिला है, जहां तवा परियोजना से काफी बड़ी मात्रा में सिंचाई होती है और जहां सोयाबीन की खेती सबसे पहले शुरु हुई। खेती में नए बीजों, रासायनिक खाद, कीटनाशक दवाओं और मशीनों का भरपूर उपयोग होता है। इस जिले को मध्यप्रदेश का पंजाब कहा जाता है। किन्तु यहां का खुशहाल माना जाने वाला किसान जबरदस्त मुसीबत में है। वह सोयाबीन से भी काफी परेशान हो गया है और इसका विकल्प खोज रहा है। लेकिन इतनी बुरी तरह फंस गया है कि इससे निकलना आसान नहीं है। सोयाबीन की खेती मूलतः यूरोप में पशु-आहार की कमी को दूर करने के लिए शुरु करवाई गई। इसका सीधा उपभोग गांव के लोग नहीं कर सकते और इसकी पूरी फसल मंडियों और फिर कारखानों में ही जाती है। एक तरह से मध्यप्रदेश में खेती और गांव के स्वावलंबन को खतम करने और सुदूर विदेशों की मांग पर निर्भरता की दिशा में यह बड़ा कदम था। शुरु में सोयाबीन की पैदावार काफी अच्छी होती थी और पहले दाम भी अच्छे मिल रहे थे इसलिए सोयाबीन की खेती फैलती गई । मध्यप्रदेश को सोयाबीन राज्य कहते हैं। (देश का 60 फीसदी सोयाबीन यहीं होता है।। अब महाराष्ट्र और राजस्थान में भी सोयाबीन की काफी खेती हो रही है। किन्तु कुछ साल बाद इसकी पैदावार गिरने लगती है। 1994 तक मध्यप्रदेश में सोयाबीन की प्रति हेक्टेयर उपज 18 क्विंटल पर पहुंच गई थी, जो उसके बाद से लगातार घटते हुए 2011-12 में 10.7 क्विंटल रह गई | 2011 की सोयाबीन फसल में भारत की पैदावार 11.55, महाराष्ट्र की 12.56, राजस्थान की 13.93, मध्यप्रदेश की 1077 और होशंगाबाद जिले की मात्र 6.40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर थी। दरअसल लगातार भारी रसायनों के साथ सोयाबीन की खेती होने पर जमीन खराब हो जाती है और कीट-प्रकोप बढ़ने लगता है। इसी बीच डंकल मसौदे पर दस्तखत होने तथा विश्व व्यापार संगठन बनने से देश में खाद्य तेलों का आयात खुला हो गया | पाम तेल और सोया तेल के आयात की बाढ़ ने देश में सोयाबीन की कीमतों को बढ़ने नहीं दिया और गाहे-बगाहे गिरा भी दिया। जिस सोयाबीन को किसानों की समृद्धि का दूत माना जा रहा था, वह अब किसानों के गले की फांसी बन गया है। जो कहानी सोयाबीन की है, वही कल बीटी कपास की होने वाली है। शुरु में इसमें फायदा दिखाई देने से मध्यप्रदेश के पश्चिम में निमाड-मालवा के कपास के खेतों में, बाकी देश की तरह, बीटी बीज छा गया है। प्रदेश और केन्द्र दोनों सरकारों ने इसे और इसे लाने वाली कंपनियों को भरपूर मदद की है। मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार ने वैसे तो जीन-मिश्रित बीजों का विरोध किया है, किन्तु यह विरोध अधूरा है क्योंकि बीटी-कपास को तो उसका प्रश्नय मिला है। सात साल पहले कई खेतों में बीटी-कपास की फसल सूखने की घटनाएं हुई थी और क॒क्षी (जिला धार) की कृषि उपज मंडी में एक जनसुनवाई में किसानों की व्यथा और कंपनियों की लापरवाही खुलकर सामने आई थी। किन्तु सरकार ने कंपनियों पर कोई कार्रवाई नहीं की व किसानों को मुआवजा नहीं दिलाया। सोयाबीन और बीटी कपास में फर्क यह है कि इस बार मामला निजी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का है, जिसमें किसान ज्यादा असहाय होंगे। पानी का क॒प्रवंध एक और उदाहरण बासमती चावल की खेती का है, जिसे सोयाबीन व अन्य फसलों के विकल्प के रुप में पेश किया जा रहा है। इसकी खेती बढ़ रही है तथा ' दावत' जैसी कंपनियों ने इसका श्रेय लिया है। किन्तु यह निर्यात फसल है और अमीरों का खाद्य है, जिसे न पैदा करने वाला किसान खा पाता है और न स्थानीय लोग। फिर पिछले साल यूरोप-अमरीका में मंदी व मांग में कमी के कारण अचानक इसके दाम काफी गिर गए और किसानों को काफी नुकसान हुआ। तीसरी समस्या है कि इसमें काफी पानी व पूंजी की जरुरत होती है। जो किसान ढाई- तीन लाख रु की पूंजी लगाकर ट्यूबवेल खुदवा पाता है, वही इसकी खेती कर पाता है, इसलिए इसका विकल्प छोटे किसानों के लिए खुला नहीं है। विडंबना है कि होशंगाबाद जिले के तवा कमांड क्षेत्र में, जहां कई जगह जल-भराव और दलदल की समस्या है, किसान ट्यूबवेल खुदवाकर बासमती की खेती कर रहे हैं। नहरी सिंचाई क्षेत्र में ट्यूबबेल एक तरह से दुहराव है और संसाधनों की 16 सामयिक वार्ता # नवंबर-दिसंबर 2013




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