10 प्रतिनिधि कहानियाँ | DAS PRATINIDHI KAHANIYAN

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विजयदान देथा - Vijaydan Detha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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32 / दस प्रतिनिधि कहानियाँ : विजयदान देथा ठाकुर ने राजा के चरणों को छूकर कहा, “भयंकर गलती हो गई अन्नदाता, माफी बख्शाएँ।” राजा को उस वक्‍त ऐसा लगा, गोया ठाकुर के रूप में खुद कबीर उसके चरणों में झुक रहा हो। राजा तो राजा ही होता है। वास्तव में इस भ्रम के बहाने राजा की खीज काफी निथर गई | ठंडे सुर में भोले कबीर को लाड़ से समझाते हुए कहने लगा, “इस जिद के पीछे धूल फेंक | छोड़ यह पागलपन। मेरे दर्शनों से पहले तकलीफ देखी सो तो देखी, पर अब ऐश कर। मेरे खजाने से तुझे मुँहमाँगी कीमत से भी सवाई कीमत मिलेगी। मुझ जैसा दबावान उमराव तुझे चिराग. लेकर ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलेगा। बावला कहीं का ! राजा तो पिता की ठौर होता है, फिर मुझसे कैसा संकोच ?” राजा ने तो इतनी देर में ही उस शीरे के तारों की पहचान कर ली थी। यह तो बानगी ही दूसरी है। हुकूमत के आतंक से वश में आने वाला यह बंदा नहीं। फिर मुसाहिबों के सामने सिंहासन की पोल खोलने में क्‍या सार ! लाड़ से पुचकारते हुए कहा, “बोल, अब तो तेरा मन बदला ? तू क्‍या सच मानेगा कि इतनी खुशामद तो मैंने पुराने राजा की भी नहीं की। तू खुशी-खुशी हा करे तो सवारों को तेरी वस्तुओं के हाथ लगाने दूँ। तुझ जैसे खरे आदमी पर मुझे भी नाज है। जो इच्छा हो, कीमत माँग ! तुझे पूरी छूट है। किसी के हाथों बख्शी हुई छूट लेने की रात तो कबीर का जन्म ही नहीं हुआ था, भले ही वो देश का मालिक ही क्यूँ न हो ? अपने मन पर कबीर किसी का अंकुश नहीं मानता था। राजा खीज॑ करे तो वही बात और रीक्ष करे तो वही बात । समूची बात को सुथराई से सँभालने की कोशिश करते हुए बोला, “मेरी जरूरतें इतनी कम हैं कि आपकी दी हुई छूट मेरे किसी काम नहीं आ सकती। आपका आना बेकार गया, इस खातिर एक दफा फिर माफी चाहता हूँ।” खुद राजा के मुँह से पुचकारकर दुलारने के उपरांत भी कबीर का वो ही नाशुक्रा हठ सुनकर राजा के एड़ी से चोटी तक आग लग गई। तब भी राजा को अपने कानों पर विश्वास करने का मन नहीं हुआ। शुबहा मिटाने की खातिर एक मर्तबा फिर पूछा, “तो क्‍या मुँहमाँगी कीमत पर भी मुझे अपना माल नहीं देगा ?” कबीर राजकुमारी के चेहरे की ओर देखते हुए कहने लगा, “लोभ-लालच के कारण बात बदलना तो मैं जानता ही नहीं। एक दफा पूछो तो बही बात और सौ दफा पूछो तो वही बात।” इन बोलों के साथ राजकुमारी को ऐसा लगा, गोया गगन में एक सूरज का दूजी कबीर / 38 उजास और जुड़ गया हो। पर राजा की हालत बुरी हो गई। वास्तव में वो देश का मालिक है कि नहीं ? सिंहासन और मुकुट की आन यों ही नहीं रखी जाती | दूसरे हीं क्षण राजमद के उफनते गुमान में उसने आदेश दिया कि अलगनी पर लटकते तमाम वस्त्रों के चिथड़े-चिथड़े कर दिए जाएँ। राजकुमारी तो अपना आपा ही बिसर गई। क्या करे और क्या न करे ? ऐसा फंदा तो कभी नहीं फँसा। पर बेहद ताज्जुब की बात कि कबीर ने किसी तरह की कोई रोक-टोक नहीं की। देखते ही देखते उसके हाथों उरेही बिजलियों के दुकड़े-टुकड़े हो गए । फूलों की पंखुड़ियाँ झड़ गईं। पहाड़ के परखचे उड़ गए। दीले बिखर गए। अपना वेश न चलने पर कबीर कर ही क्या सकता था ? उसका वश चला तब तो उसने अपने हाथों कुछ न कुछ सिरजा ही। उसने अपना काम किया। राजा अपना काम कर रहा है। मंद-मंद मुस्कराते वो सवारों के हाथों हुए अपने कलेजे के चिथड़ों का ढेर देखता रहा। कबीर के होंठों की मुस्कराहट मानो राजा का मुँह चिढ़ा रही हो। उफनने के बाद राजमद की क्‍या हद ! कड़कते सुर में आदेश किया, “देख क्या रहे हो, इन चिथड़ों की तरह इस बेशर्म की भी चिंदी-चिंदी कर डालो ।” राजा के आदेश के साथ ही चार-पाँच सवार नंगी तलवारें चमकाते कबीर की ओर लपके ही थे कि राजकुमारी उनके सामने आकर बोली, “खबरदार, कबीर को खरोंच भी आई तो मैं जिंदा जल मरूँगी !” सवारों के हाथ जहाँ के तहाँ रुक गए। न राजा के आदेश को टालना उनके वश में था और न राजकुमारी के आदेश को। कठपुतली तो धागों के बल फूदकती और धमती है। सवार नए आदेश की प्रतीक्षा में राजा के साम्रते देखने लगे। पर राजा के हलक में जैसे कुछ फैंस गया हो। कि अचानक उसके कानों में राजकुमारी के तीखे सुर की भनक पड़ी, “आप तो कला के ऊँचे पारखी हैं, अच्छी कीमत अदा की।” राजा के कलेजे को मानो अंगारा छू गया हो। कबीर कुछ दाद-फरियाद करता या गिड़गिड़ाता तो शायद राजमद की ऐंठन कुछ ढीली पड़ती। लेकिन उस पर तो कोई बात असर ही नहीं करती। तिल पर राजकुमारी की शिकायत। राजा बमुश्किल अटकते कहने लगा, “यह अपनी कारीगरी देचता नहीं, भेंट करता नहीं, फिर और क्या करता, तू ही बता ?” अक्षरों के बहाने राजकुमारी के मुँह से मानो खून टपक रही -हो, इ तरह बोली, “मुझसे पूछते तो बताती। पर अब तो पूछने की राह ही नहीं बची। इससे




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