पंख और पतवार | PANKH AUR PATWAR
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
170
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
केदारनाथ अग्रवाल -KEDARNATH AGRAWAL
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पुस्तक समूह - Pustak Samuh
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)नाम पर और जनतंत्र की अभिव्यक्ति के लिये कविता को वही कलात्मक
कथ्यात्मकता अपनानी पड़ेगी जो जनतंत्र के कथ्य को गुणात्मक रूप से
हृदयग्राही बना सके। कविता का स्तर, बजाय नीचे गिराने के, ऊपर उठाया
जाना चाहिए और इसके लिए कवि को अपने सामने उन महान कवियों की
समाजवादी रचनाओं को रखकर उनसे अच्छे लिखने के वे आयाम लेने
चाहिए जो उनकी मौलिक क्षमता के अनुरूप और अनुकूल हों। इसीलिए
आज की अनेक लंबी जनतांत्रिक कविताएँ पाठकों को नहीं पकड़ पातीं और
उनकी मानसिकता को प्रखर और प्रवेगपूर्ण नहीं बना पातीं। लगभग सभी
कविताओं का धरातल एक जैसा लगता है। यही वजह है कि इन कविताओं
को वही जनता अपना नहीं पाती जिस जनता के लिये वह लिखी जाती हैं। न
ऐसी जनतांत्रिकता से कविता का कोई भला होता है, न उस जनता का
जिसके लिए इसकी दुहाई दी जाती हैं।
वास्तव में जनतंत्र और कविता के बीच में कोई विरोध नहीं होता।
जनतंत्र भी आदमी को ऐसी परिस्थितियों में ले जाकर जिलाता है और
जागरूक बनाता है जो उसे श्रेष्ठ नागरिक बनाती हैं। कविता भी यही काम
करती है। इन दोनों के बीच का तथाकथित विरोध, जो सामने लाया जाता है
वह विरोध उन लोगों के द्वारा उछाला जाता है जो जनतंत्र की पीठ पर,
महावत की तरह सवार होकर, उस पर अपना निजी अंकुश लगाए रखना
चाहते हैं ताकि जनतंत्र उन्हीं की व्यवस्था को और उन्हीं की यथास्थिति की
राजनीति को निरन्तर पूर्ववत् कायम किये रहे। यदि जनतंत्र से यह अंकुश हटा
लिया जाये और वह अपना विकास महान मानववादी आदर्शों से करने की
छूट पा जाये तो, निश्चय ही, उस जनतंत्र की राजनीति वह राजनीति न होगी
जो आज के तथाकथित जनतंत्र की राजनीति है। आज का जनतंत्र, जिसे हम
सब रो-रोकर जी रहे हैं, हम लोगों को ही नहीं, बल्कि हमारी समग्र
मानवीय क्षमताओं को, मौलिकता को, वस्तुनिष्ठता और आत्मनिष्ठता को,
सामर्थ्यहीन बनाकर दुर्बल और निर्बल कर देता है। होता यह है, कि आज
की गर्मागर्म राजनीति कवियों को भी अपने लक्ष्य से भटका देती है और वे
लोग अपने कवि-कर्म को कम महत्व देते हुए राजनीतिक वक्तव्य देने लगते
हैं। इसीलिये इनकी कविताओं की भाषा कलात्मक नहीं हो पाती। वे केचुओं
की तरह रेंगती रह जाती हैं। इसीलिए आज की कविता को इस दुखद स्थिति
पंख और पतवार / 15
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