सभ्यता का संकट और विकल्प - मार्च -2013 | SABHYATA KA SANKAT AUR VIKALP - MARCH 2013 - SOCIAL MAGAZINE

SABHYATA KA SANKAT AUR VIKALP - MARCH 2013 - SOCIAL MAGAZINE by पुस्तक समूह - Pustak Samuhविभिन्न लेखक - Various Authors

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तेजी से घटते जाना है। 1960 के एक या दो डॉलर प्रति बैरल के मुकाबले आज कच्चे पेट्रोल (क्रूड) की कीमत सौ डॉलर के लगभग पहुंच गई है। इनके स्रोत जैसे-जैसे विरल होते जाएंगे ये अधिक महंगे होंगे और चूंकि ये परिवहन से लेकर सभी तरह के उद्योग-धंधों और बिजली उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण हैं, ये महंगे होते-होते कृषि समेत अधिकांश गतिविधियों के लिए दुर्लभ हो जाएंगे। आज की अनियंत्रित महंगाई भविष्य के ऐसे ही संकट का संकेत हैं, जहां जीवन के सारे व्यापार ठप हो जाएंगे | इस समस्या का एक राजनीतिक आयाम भी है जो पार्श्वभूमि से व्यवस्था को टिकाए रखता है और इसको विकाराल बनाता है। यह है औद्योगिक क्रांति और पूंजीवाद के विकास के साथ राष्ट्र-राज्यों का अस्तित्व में आना और वृहत आकार ग्रहण करते जाना। औद्योगिक क्रांति के पहले के दिनों में राज्य व्यवस्थाएं या तो राजाओं की साम्राज्य विस्तार की लालसा का प्रतिफल होती थी या कबीलाई आस्मिता और इसके दायरे की पहचान । सत्तासीन कबीलाई शिखर पुरुष की शक्ति का प्रतीक इनका फैला हुआ राज्य या इनकी शानो-शौकत का इजहार करने वाली सजावट की वस्तुएं होती थीं। लेकिन राज्य के विस्तार का इनकी समृद्धि से सीधा जुड़ाव नहीं होता था। यूरोप में वर्तमान राष्ट्र-राज्यों की पृष्ठभूमि दूसरी से छठीं शताब्दी तक का वह कबीलाई संक्रमण काल है जिसमें विभिन्‍न कबीलाई समूह यूरोप के विभिन्‍न भागों में आकर बस गए और पहले के निवासियों को या तो विस्थापित किया या उन पर वर्चस्व कायम किया। यूरोप के ज्यादतर राष्ट्र-राज्यों का विकास इन्हीं के इर्द-गिर्द हुआ। औद्यौगिक क्रांति एवं पूंजीवाद के विकास के साथ इन राष्ट्र-राज्यों के दायरे को विस्तृत और सख्त बनाया गया है, जिससे छोटे-छोटे दायरे को तथा पूंजी के अवरोधों को निरस्त कर व्यापारिक गतिविधियां बड़े दायरे में हो सकें | नेपोलियन के सैनिक अभियानों के बाद पूरे यूरोप में राष्ट्रवादी उभार आया और राष्ट्र-राज्यों वहां का काश्तकार विभिन्‍न यंत्रों पर खर्च किए गए 5 कैलोरी ऊर्जा से सिर्फ 4 कैलोरी देने. का वाला अनाज पैदा करता है। यानी अपनी क्षमता में यह कृषि ऋणात्मक है। इससे हम समझ सकते हैं कि अमेरिकी कृषि काश्तकारों को भारी सब्सिडी दिए बगैर जिंदा क्‍यों नहीं रह सकती। की शक्ति का संकेंद्रीकरण हुआ। इस संपर्क से संसार भर में राष्ट्रीय भावना का उदय हुआ। पूंजीवादी हित से इसका गहरा रिश्ता इस बात में दिखता है कि इधर, हाल के दिनों में फिर से राष्ट्र-राज्य के विखंडन की एक स्वाभाविक प्रक्रिया शुरु हुई है। यूरोपीय संघ के अस्तित्व में आने के बाद यूरोप के राष्ट्र-राज्यों का आर्थिक-सामरिक महत्व नगण्य हो गया है। इससे इनमें कबीलाई आधार पर विखंडन की प्रक्रिया भी शुरू हुई है। सर्बिया के वर्चस्व के विरोध में युगोस्लाविया के क्रोट आदि अलग हो गए हैं। चेकोस्लोवाकिया में चेक और सस्‍्लोवाक अलग राष्ट्र बन गए, ब्रिटेन में स्कॉट अलग होने के कगार पर हैं। राज्य, फौज और उद्योगों का गठजोड़ राष्ट्र-राज्यों का सबसे महत्वपूर्ण और भयावह पक्ष रहा है मिलिट्री इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स का अस्तित्व में आना। इससे राज्यों के सैनिक तंत्रों और औद्योगिक प्रतिष्ठानों एक जबरदस्त गठजोड़ हुआ। 19वीं शताब्दी के अंत से लेकर आज तक राज्यों का स्वरूप चाहे जो रहा हो - राजशाही, तानाशाही या लोकशाही-फौज और इसकी जरूरतों को पूरा करनेवाले एक विशाल औद्योगिक तंत्र का गठजोड़ लगातार मजबूत हुआ है। फौज देश में व विदेश में जरूरत होने पर उद्योगों के हितों की रक्षा के लिए तत्पर रहती है और उद्योग उन्हें नवीनतम आयुध और दूसरी उपयोग की वस्तुएं मुहैया कराते रहते हैं। फौज के आयुधों की मांग औद्यौगिक व्यवस्था की मंदी के संकट से जबारने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अत्याधुनिक उपकरण पाने की होड़ में हर पांच-दस साल में हथियार पुराने पड़ते जाते हैं और कबाड़ का ढेर बन जाते हैं। नित्य नए हथियारों का उत्पादन जारी रहता है। यह सुविधा उत्पादन के किसी दूसरे क्षेत्र में नहीं है क्योंकि वहां बाजार की सीमा और बिक्री की समस्या आने लगती है। आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था में राष्ट्र-राज्य 16 सामयिक वार्ता # मार्च-अप्रैल 2013




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