नव्या .वर्ष -1 , अंक 2, अगस्त - अक्टूबर 2012 | NAVYA, MAGAZINE - AUG-OCT 2012

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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डॉ. नसीम निकहत की शाइरी में एक तरफ़ अगर औरत का दर्द है तो दूसरी तरफ़ उनके अशआर रूमानियत की खुश्बू भी फैलाते है :- लोग कहते है के ये इश्क़ का सादा क्‍या है मेरी आँखों ने तेरी ज़ात में देखा कया है अब किसी और से दिल मिलता नहीं क्यूँ आख़िर कोई बतलाये के उस शख्स में ऐसा क्‍या है कैसा ये शौर है क्या छन्‍न से हुआ है आख़िर दिल नहीं,शीशा नहीं फिर यहाँ टूटा क्‍या है शाइरी की दुनिया की एक सच्चाई ये भी है कि किसी शाइरा को मोतबर होने में बड़ा वक़्त लगता है जबकी कोई शाइर कम वक़्त में मोतबर हो जाता है आज डॉ. नसीम निकहत का नाम अदब में बड़े एहतराम के साथ लिया जाता है मगर नसीम साहिबा भी उस दौर से गुज़री है जहाँ उन्हें कदम - क़दम पे अपने आपको साबित करना पड़ा , इस कसक को उन्होंने अपनी एक मक़बूल ग़ज़ल का हिस्सा यूँ बनाया :- शख्सीयत का जब फ़र्क़ था लफ़्ज़ भी मेरे बौने हुए मैं जो बोली वो बेकार था, वो जो बोला अदब हो गया और फिर इसी ग़ज़ल के एक और शे'र में घर की चार दिवारी में क्रैद सिर्फ़ घर की ही होकर रहने वाली ख़ातून का मर्म किस सलीक़े से बयान किया--- मैं उसे ज़िन्दगी सौंप कर उसके आँगन की बांदी रही मुझको दो रोटियाँ देके वो ये समझता है रब हो गया डॉ. नसीम निकहत की एक पहचान अगर मुशायरे है तो काग़ज़ पर उतरे उनके क़लाम की पजीराई भी हर तरफ़ हुई है इनकी सबसे पहली किताब धुंआ -धुंआ 1984 में मंज़रे- आम पे आई ,फिर 1991 में भीगी पलकें ,1995 में फूलों का बोझ , 2005 में ख़्वाब देखे ज़माना हुआ और 201 में मेरा इंतज़ार करना पाठकों के लिए एक सौगात बन के आई ! डॉ. नसीम निकहत को मिलने वाले एज़ाज़ की फेहरिस्त ज़रा लम्बी है फिर भी कुछ का ज़िक्र किये देता हूँ :- नवाए मीर अवाई (लखनऊ) , याद ए फ़िराक अवार्ड ,शह्र ए अदब सम्मान (गाज़ियाबाद), साहित्य जवाहर अवार्ड (लखनऊ) परवीन शाकीर अवाई (दिल्ली) और एतराफ ए कमाल (कराची)! काफी लम्बे अरसे तक डॉ. नसीम निकहत राष्ट्रीय सहारा (5) में सब- एडिटर रही मगर फिलहाल अपनी सेहत की नाराज़गी के चलते वे घर से ही लिखने-पढ़ने का काम कर रही है! हरदिल अज़ीज़ शाइर मुनव्वर राना कहते है कि डॉ. नसीम निकहत उन दो-चार शाइरात में से एक अहम्‌ नाम है जो सही मायने में शाइरा कहलवाने की हक़दार है जिस तरह पाकिस्तान में परवीन शाकीर शाइरात का हवाला है उसी तरह डॉ .नसीम निकहत हमारे मुल्क की परवीन शाकीर है ! डॉ. नसीम निकहत का बात कहने का सलीक़ा ,उनका मुख्तलत्रिफ लहजा उन्हें ऐसे मुकाम पे काबिज़ किये हुए है जहाँ फिलहाल तो कोई और उनके आस-पास भी नज़र नहीं आता ! परम्पराओं की चिलमन में से न जाने कितनी नशिस्तें उन्होंने सुनी होंगी अपने आप से कितना मशक किया होगा तब जाके कहीं ये हुनर आया होगा कि किसी जवाब में से फिर से सवाल निकालकर उसे ग़ज़ल बना दिया जाय! नफरत से नफरत बढती है प्यार से प्यार पनपता है आग लागाने वालों को ये बात मगर समझाए कौन और उनके इस शे'र को तो बस महसूस किया जा सकता है अम्मा थक कर आँखें मूंदे मिटटी ओढ़े सोती है घर आने में देर अगर हो, उसकी तरह घबराए कौन डॉ. नसीम निकहत के पास अगर शे'र कहने के लिए बेहतरीन ख़याल है तो उसके साथ - साथ उनका लफ़्ज़ों का इन्तिख़ाब भी लाजवाब है ! अपने एहसास को लफ़्ज़ से मिलाने में वे ऐसी मीनाकारी करती है कि शे'र फिर अपना रसता ख़ुद बनाता चला जाता है उसे फिर न तो कोई अदाकारी की सवारी चाहिए और न ही उसे तरननुम की उंगली पकड़ने की ज़रूरत महसूस होती है ! उनके कुछ अशआर तो ऐसा ही कुछ कहते है :- ज़रा सी शौहरत पे है ये आलम,चराग़ सूरज पे हँस रहे हैं जो खानदानी हैं जानते हैं तमीज़ कया है शऊर क्या है अगस्त - अक्टूबर 2012 16 ४५४५.॥०५७५०.॥




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