हिंदी चेतना ,अंक -45, जनवरी 2010 | HINDI CHETANA- MAGAZINE - ISSUE 45 - JANURARY 2010

HINDI CHETANA- MAGAZINE - ISSUE 45 - JANURARY 2010 by अरविन्द गुप्ता - Arvind Guptaविभिन्न लेखक - Various Authors

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हिन्दी ब्लॉग में इन दिनों... तर ५ एक टिप्पणी दीजिए $ आत्मातम ग्र्मा | हि ब्लॉग की दुनिया दिन-ब-दिन समृद्ध होती जा रही है. रोजनदारी की बातें हों, स्थानीय मुद्दे हों या फिर राष्ट्रीय महत्व की घटनाएँ. यहाँ आप लगभग हरेक बात और मुद्दे पर गंभीर विचार- विमर्श पायेंगे. हिन्दी ब्लॉग जगत के लिए यह अच्छी खबर ही कही जायेगी. हर रोज सैकड़ों ब्लॉगों पर पाठकों की हजायखों प्रतिक्रियाएँ पढ़कर यह सुखद एहसास और पुख्ता होता जाता है कि हिन्दी पढ़ने और लिखने वालों के बीच अब जीवंत संवाद का माहौल बन रहा है। इसके अलावा तब और अच्छा लगता है जब यूनिकोड में टाइप किया हुआ कोई शब्द या विषय गूगल में सर्च करने पर उससे जुड़े दर्जनों पेजों की सामग्री हाज़िर हो जाती है. हालाँकि यह सुविधा अभी प्रारंभिक दौर में है और गुजरते समय के साथ ब्लॉगों की सामग्री का सटीक संदर्भ पेजों के तौर पर इस्तेमाल होने में अभी समय लगेगा. गुजरे साल में हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी को हमने खो दिया. ब्लॉग जगत में उनके व्यक्तित्व को उजागर करते सैकड़ों पन्ने दर्ज किये गये. संजय पटेल ने ॥॥10:॥[0919्ां5ववा|99५ 096०॥0.01085/0.००॥ उड़ गया....कागद कारे करने वाला हँस अकेला!” के जरिये प्रभाषजी को यूँ याद किया : वरिष्ठ हिन्दी पत्रकार श्री प्रभाष जोशी के अवसान का समाचार सुना. यूँ लगा जैसे मालवा का एक लोकगीत ख़ामोश हो गया. उनके लेखन में मालवा रह-रह कर और लिपट-लिपट कर महकता था. नईदुनिया से अपनी पत्रकारिता की शुरूआत करने वाले प्रभाषजी के मुरीदों से बड़ी संख्या उनसे असहमत होने वालों की है. लेकिन वे असहमत स्वर भी महयूस करते रहे हैं कि पत्रकारिता में जिस तरह के लेखकीय पुरूषार्थ की ज़रूरत होती है, प्रभाषजी उसके अंतिम प्रतिनिधि कहे जाएंगे. आज पत्रकारिता में कामयाब होने के लिये जिस तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं, प्रभाषजी उससे कोसों दूर अपने कमिटमेंटस पर बने रहे. दिल्‍ली जाकर भी वे कभी भी मालवा से दूर नहीं हुए. बल्कि मैं तो यहाँ तक कहना चाहूँगा कि श्याम परमार, है जनवरी-मार्च 2010 गुजरे ग्राल में हिन्दी के बरिठ काका प्रभाव जोशी को ठमने ब्वो दिया ब्लॉग जगत भें उनके व्यक्तित्व को उजागर करते ग्रैकड़ों व्ले दर्ज किये गये. म्जय पटेल ने 1177:/(00917/771547/49/ (27/९/6.010985/0701.0017 7ड गया... कागद कारे करने वाला हँँत अकेला/' के जगिये व्रभाषजी को यूँ याद किया कुमार गंधर्व, प्रभाष जोशी और प्रहलादसिंह टिपानिया के बाद मालवा से मिली थाती को प्रभाषजी के अलावा किसी ने ईमानदारी से नहीं निभाया; यहाँ तक कि अब मालवा में रह कर पत्रकारिता, कला, कविता और संगीत से कमा कर खाने वालों ने भी नहीं. जनयत्ता उनके सम्पादकीय कार्यकाल और उसके बाद के समय में जिस प्रतिबध्द शैली में काम करता रहा है उसके पीछे कहीं न कहीं प्रभाषजी का पत्रकारीय संस्कार अवश्य क़यम है. राहुल बाखपुते जैसे समर्थ पत्रकार के सात्रिध्य में प्रभाषजी ने अख़बारनवीसी की जो तालीम हामिल की उसे ज़िन्दगी भर निभाया. आज पत्रकारिता क्राइम, ग्लैमर और राजनीति के इर्द-गिर्द फ़ल-फूल रही है, कितने ऐसे पत्रकार हैं जो कुमार गंधर्व के निरगुणी पदों का मर्म जानते हैं, कितने केप्टन मुश्ताक अली या कर्नल नायडू की धुंआधार बल्‍लेबाज़ी की बारीकियों को समझते हैं, कितने ऐसे हैं जो अपने पर्विश की गंध को अपने लेखन में बरक़्हार रख पाते हैं; शायद एक-दो भी नहीं. राजनेताओं से निकटता आज पत्रकारिता में गर्व और उपलब्धि की बात मानी जाती है. प्रभाषजी जैसे पत्रकारों ने इसे




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