दिवास्वप्न | DIVASWAPNA
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
66
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
गिजुभाई बढेका -GIJUBHAI BADHEKA
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पुस्तक समूह - Pustak Samuh
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मेरी निराशा की सीमा न रही | मैंने भाषण की बड़ी अच्छी
तैयारी की थी । पर क्या करता ? आख़िर मैंने अपना भाषण
शुरू कर ही दिया | सोचा, हमारा काम तो प्रयत्न करने का है।
भाषण का भी यह एक प्रयोग ही सही !
बड़ी गम्भीरता-पूर्वंक एक घण्टे तक मैंने मननीय भाषण
किया । सात सज्जनों में से एक को घर जाने का बुलावा आं
गया और वे चले गये; दूसरे बड़ी दुविधा में फंसे मेरी बातें सुन
रहे थे । बातें सब महत्व की थीं - और उनको समभाना बहुत
जरूरी था ।
मैंने उन्हें सच्ची और झूठी पढ़ाई का तात्त्विक भेद बड़ी
बारीकी से समझाया । मैंने उन्हें बताया कि आध्यात्मिक उन्नति
का स्वच्छता के साथ क्या सम्बन्ध है । मैंने उन्हें सेल और चरित्र-
गठन की जंजीर भी जोड़कर बताई । मैंने उन्हें अन्तस्तल से उगने
वाले सच्चे अनुशासन की महिमा और उसका महत्त्व समझाया
और आजकल की प्रचलित शिक्षा-पद्धति का ओर अनुशासन का
खण्डन किया ।
लेकिन यहाँ तो औंधघे घड़े पर पानी वाली मसल थी । बेचारे
दो-चार जो मारे शरम के आ गये थे, वे भी घर जाने को उतावले
हो रहे थे । भाषण खतम होते ही वे चले गये ।
. रह गये हम शिक्षक और हमारे अधिकारी । साहब ने ज़्रा
हँसकर कहा--लक्ष्मीशंकर जी ! यह तो भैंस के आगे भागवत
पढ़ी गई ! भई, तुम्हारी इस फिलॉसफ़ी को समझता कोन है ?'
है, मूर्ख !
मुझे अच्छा तो न लगा, लेकिन मैं जब्त कर गया । मैंने मन
ही मन यह अनुभव भी किया कि मैं अभी थोड़ा “पठित मूर्ख तो
दिवास्वप्न 24
पीछे से किसी शिक्षक ने धीमी आवाज में कहा--अजी, मूर्ख
जरूर हूँ । अभी मैं यह भी तो नहीं जानता कि साधारण लोगों के
सामने भाषण केसे करना चाहिए।
शिक्षक सब हँसतैे-हँसते घर गए ।
:8:
दस-बा रह दिन बीते ओर मैंने पुस्तकालय के काम को हाथ
में लिया । कहानियाँ बहुतेरी कही जा चुकी थीं । लड़के चोथे दरजे
के थे । अब उनके हाथ में पुस्तकों के आने को ज़रूरत थी ।
मैंने लड़कों से कहा--'कल चौथी पुस्तक और इतिहास के
दाम लेते आना । यहीं से सब प्रबन्ध करेंगे ।'
दूसरे दिन एक लड़का चौथी किताब और इतिहास लेकर ही
आ गया। कहने रलूगा--''जिस दिन चौथी में चढ़ा उसी दिन
पिताजी ने ये ख़रीद लो थीं ।
दूसरा बोला--भेरे बड़े भाई के पास ये किताबें थीं ।
इन्हें ले आया हूं ।
तीसरे ने कहा--'जो, मेरे लिए तो बम्बई से मेरे फफा
किताबें भेजने वाले हैं । यहाँ से नहीं लो जायेंगी ।
एक और लड़के ने कहा--'मेरे बाबूजी पेसे देने से इनकार
करते हैं । कहते हैं--'किताबें हम दिला देंगे ।”
मैंने सोचा--मार डाला ! कल्पना में तो पुस्तकालय का मेल
मिलाना आसान था, लेकिन वास्तव में काम बड़ा टेढ़ा है !
कुछ विद्यार्थी पैसे भी लाये थे । मैंने पेसे रख लिये और रसीद
देकर लड़कों से कहा--“अच्छी बात है।'
दूसरे दिन लड़के कहने लगे-- हमारी चौथी पोथी ? हमारा
इतिहास ?
25 प्रयोग का आरम्भ
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