दिवास्वप्न | DIVASWAPNA

DIVASWAPNA by अरविन्द गुप्ता - Arvind Guptaगिजुभाई बढेका -GIJUBHAI BADHEKA

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मेरी निराशा की सीमा न रही | मैंने भाषण की बड़ी अच्छी तैयारी की थी । पर क्या करता ? आख़िर मैंने अपना भाषण शुरू कर ही दिया | सोचा, हमारा काम तो प्रयत्न करने का है। भाषण का भी यह एक प्रयोग ही सही ! बड़ी गम्भीरता-पूर्वंक एक घण्टे तक मैंने मननीय भाषण किया । सात सज्जनों में से एक को घर जाने का बुलावा आं गया और वे चले गये; दूसरे बड़ी दुविधा में फंसे मेरी बातें सुन रहे थे । बातें सब महत्व की थीं - और उनको समभाना बहुत जरूरी था । मैंने उन्हें सच्ची और झूठी पढ़ाई का तात्त्विक भेद बड़ी बारीकी से समझाया । मैंने उन्हें बताया कि आध्यात्मिक उन्नति का स्वच्छता के साथ क्‍या सम्बन्ध है । मैंने उन्हें सेल और चरित्र- गठन की जंजीर भी जोड़कर बताई । मैंने उन्हें अन्तस्तल से उगने वाले सच्चे अनुशासन की महिमा और उसका महत्त्व समझाया और आजकल की प्रचलित शिक्षा-पद्धति का ओर अनुशासन का खण्डन किया । लेकिन यहाँ तो औंधघे घड़े पर पानी वाली मसल थी । बेचारे दो-चार जो मारे शरम के आ गये थे, वे भी घर जाने को उतावले हो रहे थे । भाषण खतम होते ही वे चले गये । . रह गये हम शिक्षक और हमारे अधिकारी । साहब ने ज़्रा हँसकर कहा--लक्ष्मीशंकर जी ! यह तो भैंस के आगे भागवत पढ़ी गई ! भई, तुम्हारी इस फिलॉसफ़ी को समझता कोन है ?' है, मूर्ख ! मुझे अच्छा तो न लगा, लेकिन मैं जब्त कर गया । मैंने मन ही मन यह अनुभव भी किया कि मैं अभी थोड़ा “पठित मूर्ख तो दिवास्वप्न 24 पीछे से किसी शिक्षक ने धीमी आवाज में कहा--अजी, मूर्ख जरूर हूँ । अभी मैं यह भी तो नहीं जानता कि साधारण लोगों के सामने भाषण केसे करना चाहिए। शिक्षक सब हँसतैे-हँसते घर गए । :8: दस-बा रह दिन बीते ओर मैंने पुस्तकालय के काम को हाथ में लिया । कहानियाँ बहुतेरी कही जा चुकी थीं । लड़के चोथे दरजे के थे । अब उनके हाथ में पुस्तकों के आने को ज़रूरत थी । मैंने लड़कों से कहा--'कल चौथी पुस्तक और इतिहास के दाम लेते आना । यहीं से सब प्रबन्ध करेंगे ।' दूसरे दिन एक लड़का चौथी किताब और इतिहास लेकर ही आ गया। कहने रलूगा--''जिस दिन चौथी में चढ़ा उसी दिन पिताजी ने ये ख़रीद लो थीं । दूसरा बोला--भेरे बड़े भाई के पास ये किताबें थीं । इन्हें ले आया हूं । तीसरे ने कहा--'जो, मेरे लिए तो बम्बई से मेरे फफा किताबें भेजने वाले हैं । यहाँ से नहीं लो जायेंगी । एक और लड़के ने कहा--'मेरे बाबूजी पेसे देने से इनकार करते हैं । कहते हैं--'किताबें हम दिला देंगे ।” मैंने सोचा--मार डाला ! कल्पना में तो पुस्तकालय का मेल मिलाना आसान था, लेकिन वास्तव में काम बड़ा टेढ़ा है ! कुछ विद्यार्थी पैसे भी लाये थे । मैंने पेसे रख लिये और रसीद देकर लड़कों से कहा--“अच्छी बात है।' दूसरे दिन लड़के कहने लगे-- हमारी चौथी पोथी ? हमारा इतिहास ? 25 प्रयोग का आरम्भ




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