आत्मगंध | ATMAGANDHI

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केदारनाथ अग्रवाल -KEDARNATH AGRAWAL

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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फूला खड़ा है धुआँ है न उगीं जहाँ कभी पहले हम जीते हैं स्वार्थ सिद्ध होता है उनका कुछ है, इस जंगल में घड़े में तृण हैं शोर है-जनाब ! घर की घुटन में पड़ी औरतें देखे देश 'सच' अब ऐसा नासमझ हो गया है ठहरो, ठाकुर, ठहरो देह में देशी लम्बान में लम्बे हुए गया पचासी हरेक जीता है यहाँ समाज में मर्त्यलोक में 'सच' अब नहीं रह गया 'सच' हम मर गये आपके लिए सुनो मिलते नहीं वे जीने के नाम पर जीते हैं वे “न जीना' कुछ हैं हम नहीं जीते उनको खेत और खेत हैं तुम टुइयाँ हो कहे न चाहे कोई भकुवा 21-10-87 1965 1965 1965 1965 25-10-67 26-10-67 29-11-75 3712-75 10-1-80 31-8-80 1-9-80 11-4-81 20-1-82 5-12-85 1-1-86 6-4-86 21-5-86 28-5-86 2/-5-86 9-6-86 11-6-86 13-6-86 26/29-6-86 9-9-86 6-6-8/ 9-8-8/ 10-8-87 149 150 151 152 153 वञ्4 155 156 15 158 159 160 161 163 164 165 16 16 168 169 1790 1 1/2 194 17 198 180 1201 आत्मगंध / 15




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