सदाचार - विशेष अंक | SADACHAR ANK - SPECIAL ISSUE - GITA PRESS

SADACHAR ANK - SPECIAL ISSUE - GITA PRESS by अरविन्द गुप्ता - Arvind Guptaविभिन्न लेखक - Various Authors

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६ # घममूलं निपेवेत सदाचारमतन्द्रितः # कु कु सदाचार विश्वके अभ्युदयका मुठ सोत--सदार [ अनन्तश्रीविभूषित जगद्रु शंकराचार्य ऊर्ध्वाम्नाय श्रीकाशीसमदपीठाथीश्वर खामी श्रीशंकरानन्द सरखतीजी महाराजका प्रसाद | सदाचार व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्रके अम्युदयका मल स्रोत है | यदि समाजमें सदाचार अग्रतिष्ठित हो जाता है तो राष्ट्रम कदाचार खभावतः बढ़ जाता है । सदाचार तथा कदाचार परस्परविरुद्ध हैं | सदाचारका परिणाम परस्परविश्वास, सौमनस्थ, सुख एवं शान्ति है । कदाचारका परिणाम समाज या राष्ट्रमें स्वत्र परस्पर अविश्वास, कलह, देन्य तथा अशान्ति है | वर्तमानमें हमारा राष्ट्र शनेःशने: कदाचार- रोगसे ग्रस्त होता जा रहा है | परिणाम भी सुस्पष्ट परिलक्षित हो रहा है | अधिकतर धार्मिक, राजनीतिक तथा सामाजिक संस्थाएँ असदाचारसे ग्रस्त हैं, अतः राष्ट्रकी शान्ति भी उत्तरोत्तर भन्गन होती जा रही है । कहींपर स्थिरता या मर्यादाका अस्तित्व नहीं रह गया है । सर्वत्र खार्थका नग्न-ताण्डव हो रहा है | इस अवसरपर गीताप्रेस” द्वारा 'सदाचार-अड्डशका प्रकाशन अत्यन्त सामयिक एवं समुचित है | सदाचार शब्दका शास््रसम्मत अर्थ--अशाल्रोंके अनुसार सज्जनोंके आचारका नाम सदाचार है---'सर्तां सज्जनानामाचारः--सदाचारः |! अथवा सत्‌ परमात्माके प्राप्यय शाखसम्मत सजनोके आचरणका नाम सदाचार है। दुसरे शब्दोमें शात्नसम्मत जिन आचरणोके करनेपर आत्मा, मन-वाणी तथा शरीरको सुसंस्क्ृत कर सद- चित्‌-आनन्दरूप परमात्माकी उपलब्धिकी ओर उन्मुख कर असत्‌-रूप जगतके रागद्रेप-कलह. आदि आसुरभावोंसे विमुक्त होकर प्राणी अभ्युदय तथा दान्तिमय बातावरणका निर्माण करता है---कर सकता है, वे कम, आचरण या व्यापार 'सदाचारः हैं। विद्ेपपगरहिता अजनुतिष्ठन्ति य॑ मुने। विद्धांसस्त॑ सदाचारं धर्ममू्ल विद्ुदुधाः ॥ ( स्कन्दपुराण, कागीखं० अ० ३५; इलोक २५) शरजन्मा स्कनदर अगस्यजीसे कदते हैं--भमुने ! अम्ृया-राग-देपादि दोपोंसे विमुक्त संत एवं विद्ृश्नन जिन आचरणोका अनुष्टान करते हैं, पण्डितलोग उन आचरणोंको बर्ममछ एवं सदाचार मानते या समझते हैं ।! सदाचारके पालन न करनेसे मानत्र निन्दनीय, रोगी, दुःखी और अल्पायु हो जाता है-..- डुराचाररतों छोके गर्ईणीयः पुमान भवत्‌। व्याधिभिश्वाभिमूयेत सदाल्पायुः सुद॒ुःखभाक ॥ ( स्कन्दपुराण काशीख० ३५ | २८ ) इस विपयपर पाश्चात्त्य विद्वान्‌ जे० मिल्ट सेवने नामके विचार भी मननीय हैं | वे कहते हैं- ण॒पातर जाए ग्रातछ काशी 0 16 उछ० 61 णाह व्रपराताट्त एटव75 07 11076 15 10 ए्ॉंडणातए 5ाशाशशा:, 0९८०१ाग1एह 10 11एछ51010/1 ४ शाद प्रध्पारं 1985 पी€ चंच्ाउतता 6 कैषाया 1८ 56प्रॉत॒ छ€ 8॥6९95६ 1ए९ ंग्राट5 0 हर ए९क्‍०१, 1€ट९55817ए7 0 ३टयशटा पर] ह70७छ४७1, 7फ्रांड 15 & एाट्एथजाताए 189, ए्यांटा 15 1117 रटाए111९0 गा धार फपाल लल्यणा, 7 ग्र८ प्रणा5८ 8€10फ5 गरिएडट. एलशा5 थादे वीएटड 0 ४20०0०प६४ ईएरूटाए- 4ए९ 6 179, हा 162 ४ए० बाते 3 प्रा गाते 1ए€5 60 2४70प:८ ६+छटशॉएए 67 ६6प्र-/6€८1, 7म्म८ ट्ारों 87095 छरंह्या एषथा5$ शात 1ए८5 ६0719, कै गराधा 270४8 80००पा छाए 07 (७०७८१ मिए९ आल्ता5, शाशारटट 1 उट्लंबाड ल०ठपांत 56 व्ख्लॉपरदरत, 5 गाग्राव तेफाइधता 601 116 ड1ण116 आ00 5९ 1९55 1 जाए ञततद+6९0.' ( 1ए९ 00 ज़पाताणरत, एडाक्र्ता:0 ) मानव सौ वर्ष या उससे अधिक आयुतक जीबित रह सकता है, यह कोई काल्पनिक वर्णन नहीं है | शरीर-विज्ञान तथा प्राकृतिक नियमानुसार मानव-




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