बड़ों का बचपन | BADO KA BACHPAN
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
91
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक समूह - Pustak Samuh
No Information available about पुस्तक समूह - Pustak Samuh
संजीव ठाकुर - SANJEEV THAKUR
No Information available about संजीव ठाकुर - SANJEEV THAKUR
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)बड़ों का बचपन
पढ़ीं और तारीफ की। यह बात पिताजी के पास भी पहुँच गई। उन्होंने वे
कविताएँ देखीं और मुस्कुरा दिए।
स्कूल से अरुचि होने के बावजूद मेरी पढ़ाई बराबर चलती रही। घर पर
भाषा, गणित, विज्ञान, चित्रकला सभी सिखाए जाते। शरीर को स्वस्थ
बनाने पर भी ज़ोर दिया जाता। घर में संगीत के स्वर भी गूँजते रहते। कोई
भालू नचाता, कोई साँप का खेल दिखलाता। कोई नांटक दिखाता, कोई
बाज़ीगरी। कोई किसी से शर्त जीतने के लिए बीस सेर मांस खा लेता |
यह सब देखकर हमें बहुत मज़ा आता।
हमें प्राचीन धर्मों, परम्पराओं, आदर्शों और रीति-रिवाज़ों का आदर करना
सिखाया जाता। मुझे रामायण और महाभारत्त से तो लगाव हो ही चुका था,
अब प्राचीन बांग्ला पुस्तकों को पढ़ने की रुचि जगी। वे किताबें सोने वाले
कमरों में शीशे की अलमारियों में बन्द रहती थीं। उन्हें निकालने के लिए
कभी-कभी चाची की साड़ी के छोर से बँधे चाबी के गुच्छों को चुराना भी
पड़ता था। जब पिताजी यात्रा पर बाहर गए होते, मैं चुपचाप उनके कमरे
में घुस जाता। उनकी कुर्सी पर बैठकर उनकी कोई किताब पढ़ने लगता।
जब मैं बारह वर्ष का था, मेरा उपनयन किया गया। केसरिया कपड़े
पहनकर और सिर मुँड़ाकर कमरे में गायत्री का जाप करने में मुझे बहुत
मज़ा आया। मैं सिर्फ इस बात से परेशान था कि मुँड़े सिर मैं स्कूल कैसे
जाऊंगा? लेकिन इसकी नौबत ही नहीं आई। उत्सव समाप्त होने पर
पिताजी ने मुझे बुलाया और पूछा, “तुम कुछ महीनों के लिए मेरे साथ यात्रा
पर जाना पसन्द करोगे?”
घर से निकलकर यात्रा पर जाने से मुझे बहुत खुशी हो रही थी। मैं पिताजी
के साथ पहले शान्तिनिकेतन गया। पिताजी के नज़दीक आने का यह
पहला ही मौका था। पिताजी मुझे छोटे-मोटे काम करने को कहते। मैं
उनकी घड़ी में चाबी देता। उनके खुदरे पैसों को सम्हालता।
भिखारियों को भीख देता। छोटी-मोटी चीज़ें खरीदता और पैसों का
हिसाब रखता |
28
रवीन्द्रनाथ ठाकुर
वहीं मुझे यह पता चल गया कि कविताएँ लिखने के लिए शान्तिनिकेतन
से बेहतर कोई जगह नहीं है। मैं बगीचे में नारियल के पेड़ के नीचे ज़मीन
पर बैठ जाता, सामने अपने पैर फैला देता और लिखने लगता। मेरी नीली
नोटबुक फट गई थी। अब मेरे पास पक्की जिल्दवाली एक नई नोटबुक
आ गई थी।
कुछ दिनों के बाद हम लोग अमृतसर चले गए। वहाँ एक महीना ठहरे |
पिताजी मुझे अँग्रेज़ी, बांग्ला, व्याकरण, संस्कृत और खगोल विज्ञान पढ़ाते |
पिताजी सादा खाना खाते थे जो मुझे अच्छा लगता था। इस यात्रा में
पिताजी का दूसरा ही रूप देखने को मिला। जोड़ासांको (अपने पुश्तैनी
घर) में तो हम लोग इनसे डरते थे ।
घर लौटकर मैं अपनी यात्रा के किस्से सबको सुनाया करता। माँ को मुझ
पर बड़ा गर्व होता।
घर में मेरे भाई ज्योतिरिन्द्र और भाभी कादम्बरी देवी मुझे कविता से जुड़ने
में मदद करते। माँ की मृत्यु के बाद बड़ी बहन सौदामिनी देवी मेरा ध्यान
रखने लगीं। नाटक और संगीत के अलावा ज्योतिरिन्द्र की रुचि घुड़सवारी
और तैराकी में भी थी। वे मुझे भी घुड़सवारी और तैराकी सिखाते। एक
बार वे मेरे लिए किराए का एक टट॒टू ले आए। मैं उस पर चढ़कर देहात
की ओर निकल गया। मैं उस पर से सिर्फ इसलिए नहीं गिस कि ज्योति
दादा को भरोसा था कि मैं नहीं गिरूंगा।
ज्योति दादा नाटक लिखा करते थे। नाटक के लिए गीत मुझसे लिखवाते |
नाटक के बीच जब वे गीत गाए जाते तो सबको आश्चर्य होता कि एक कम
उम्र के लड़के ने यह गीत लिखा है।
मैं सोलह साल का हो गया था। मेरे भाई-बहन मेरे भविष्य को लेकर चिन्ता
करने लगे थे। भाई सत्येन्द्रनाथ ने सुझाव दिया कि मुझे इंग्लैण्ड भेज दिया
जाए। मुझे वहाँ मैट्रिकुलेशन की परीक्षा पास कर कानून की पढ़ाई करनी
थी। इससे पहले चुस्त और आधुनिक बनने के ख्याल से मुझे अहमदाबाद
में सत्येन्द्र दादा के पास रहना पड़ा। उनके पास अंग्रेज़ी की ढेरों किताबें
29
User Reviews
No Reviews | Add Yours...