पर्यावरण पथ के पथिक | STORIES OF 15 ENVIRONMENTALISTS
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
292 KB
कुल पष्ठ :
54
श्रेणी :
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पुस्तक समूह - Pustak Samuh
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विभिन्न लेखक - Various Authors
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)तक उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में वनस्पतिशास्त्र पढ़ाया और वनस्पति विज्ञान के अलग-अलग क्षेत्रों में 35: पीएचडी
के छात्रों को गाइड किया। उन्होंने भारतीय विज्ञान को समृद्ध बनाया - शिक्षक, संपादक, पाठ्यपुस्तक लेखक, शैक्षणिक
फिल्में बनाकर विज्ञान के लोकप्रियकरण, प्रतिभाओं को बढ़ाने वाले, चिंतत और योजनाकार की हैसियत से। शैक्षणिक
संस्थायें, विद्वान समितियां और अनुदान संस्थायें उनके महत्वपूर्ण योगदान से लाभांवित हुयीं। वो भारत की चारों महत्वपूर्ण
विज्ञान अकादमियों के सदस्य हैं। वो वनस्पतिशास्त्र और प्राणिशास्त्र सर्वे की शीर्ष सलाहकार समितियों और मैनएड
बायोस्फीयर प्रोग्राम (1990-1996) के चेयरमैन रहे हैं। प्रोफेसर मोहन राम कई प्रतिष्ठित पुरुस्कारों से सम्मानित हें।
आजकल वो दिल्ली विश्वविद्यालय के पर्यावरण (जीवशास्त्र) विभाग में इंसा (इंडियन नेशनल साइंस एकैडमी) के
ज्येष्ठ वैज्ञानिक हैं।
एक वनस्पतिशास्त्री का मनन-चिंतन
मैं मैसूर के सुंदर शहर में जन्मा। घर में संगीत, पुस्तकों के साथ-साथ कई और बच्चे भी थे। हम आने करोटी
(गजशाला) घूमने जाते जहां हमें बहुत मजा आता। गजशाला में अलग-अलग आयु के चालीस से भी अधिक हाथियों
को ट्रेनिंग दी जाती थी। पौधों में मेरी रूचि मेरी मां ने जगायी। उन्हें खुद बागबानी का बहुत शौक था। स्कूल में हमारे
जीवविज्ञान के शिक्षक श्री आर एक चक्रवर्ती ने हमसे मेढकों के अंडे और टेडपोल इकट्ठे करवाये और अंडे से मेंढक
के अद्भुत रूपांतरण से हमें परिचित कराया। बिलिरंगा पहाड़ियों पर मैं कुछ समय अपने चाचा के साथ रहा। यह
वन्यजीवन का मेरा पहला अनुभव था। मैंने हाथियों के झुंड को एक खेत को रौंदते देखा। वहां हाथियों को भगाने के
लिये छोटे बच्चे पेड़ों पर बेठकर फटे बांसों को हिलाकर तेज आवाज पैदा कर रहे थे।
मैसूर के कालेज में मेरी भेंट डा एम ए राऊ और श्री बी एन एन राव से हुयी। दोनों ही बेहद प्रतिभाशाली
फील्ड-वनस्पतिशास्त्री थे। पौधों को खोजते हुये वे दूर-दूर तक साइकिल यात्रायें करते। पौधों के आकार और वर्गीकरण
का उन्हें गहरा ज्ञान था। जो सबसे महत्वपूर्ण सबक मैंने उनसे सीखा वो था - सरसरी निगाह और बारीक अवलोकन
के बीच का अंतर। मैंने उनसे बहुत से पौधों के लैटिन नाम, वर्गीकरण और उनके उपयोगों के बारे में भी सीखा।
स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के बाद 1951 में मैंने आगरा के बी आर कालेज में एमएससी में दाखिला लिया।
यह वैसे तो एक सामान्य कालेज था परंतु यहां के शिक्षक बहुत श्रेष्ठ, दयालु और अपने विषय में रुचि रखने वाले थे।
एक साफ, हरे-भरे शहर से एक गंदे, धूल भरे, आधे रेगिस्तानी, खारे पानी वाले शहर में आना मुझे काफी दुश्वार
लगा। मैं अक्सर सोचता - ताजमहल, मैसूर में क्यों नहीं बना! आगरा में मुझे पहली बार सैल्वाडोरा, टेमैरिक्स, स्वाईदा,
सैल्सोला और कैपैरिसिस प्रजातियों के पेड-पौधे देखने का अवसर मिला। ये पेड़ समय के साथ यहां के सूखे, गर्मी,
और नमकीन मिट्टी के आदी हो गये थे। यहां प्रोफेसर बहादुर सिंह ने शोधक्रिया से मेरा परिचय कराया। उन्होंने मुझे
शोध में सैद्धांतिक कड़ाई का महत्व भी समझाया।
आगरा में मुझे बताया गया कि साईकस रेवोल्यूटा के जो पौधे (20 करोड़ वर्ष पहले यही वनस्पति सबसे अधिक मात्रा
में पायी जाती थी) ताजमहल के बगीचे में लगे हैं वो सभी मादा हैं और नर पौधे के अभाव में उनमें बीज नहीं पैदा हो
सके हैं। मुझसे मैसूर से एक नर पौधा लाने को कहा गया। मैंने मैसूर महल के बगीचे से कैसे करके एक पौधा चुराया
और फिर उसे कई बोरियों की तहों से ढंका। उसमें तेज बदबू आ रही थी इसलिये रात के समय जब मैं सोया हुआ था
तो ट्रेन के सहयात्रियों ने उस बोरे को डिब्बे से बाहर फेंक दिया। शायद इसी कारण ताजमहल परिसर में साइकैड के पौधे
बूढ़े होकर भी कुंवारे हैं! एक बार यमुना के तट पर वनस्पतियां इकट्ठा करते समय मैं बलुआ दलदल में फंस गया। अगर
मेरे प्रोफेसर ने तत्काल अपनी धोती खोलकर उसे मेरे चारों ओर लपेटकर मुझे जल्दी से नहीं खींचा होता तो शायद में
आज इस लेख को लिखने के लिये जिंदा नहीं बचता!
एमएससी की पढ़ाई समाप्त करने के बाद मैं खुशनसीब था कि मुझे तुरंत दिल्ली विश्वविद्यालय में वनस्पतिशास्त्र
के लेक्चरर की नौकरी के लिये चुन लिया गया। वहां मैं प्रोफेसर पी माहेश्वरी के प्रभाव में आया जोकि अंतर्राष्ट्रीय
ख्याति के वनस्पतिश्रूण वैज्ञानिक थे। विश्व भर के छात्र उनकी लिखी पुस्तकें पढ़ते थे। माहेश्वरी एक संपूर्ण
वनस्पतिशास्त्री थे - इस विषय की प्रत्येक शाखा में उनकी रुचि थी। वो आत्मसंयमी, बेहद मेहनती और व्यवस्थित
वैज्ञानिक थे और उन्होंने दिल्ली में वनस्पनिशास्त्र का बहुत ही समृद्ध विभाग स्थापित किया था। माहेश्वरी हमेशा
उपयोग, तरीके, समयबद्धता, सफाई और वैज्ञानिक शोध की शुद्धता पर जोर देते थे। उनको देखकर ही मैंने
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