जंगली बूटी | JUNGLEE BOOETE

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अमृता प्रीतम - Amrita Pritam

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नन्हे क्या पढ़ती हो, बीबीजी?” एक दिन अंगूरी जब आई मैं नीम के पेड़ों 5 जे रे ६ के नीचे बैठकर एक किताब पढ़ रही थी। | “तुम पढ़ोगी? “मेरे को पढ़ना नहीं आता।” “सीख लो।” “ना।” क्यों? 8 “ओरतो को पाप लगता है पढ़ने से। चर “औरतों को पाप लगता है, मर्द को नहीं लगता?” “ना, मर्द को नहीं लगता? “यह तुम्हें किसने कहा है?” “मैं जानती हैं। . “फिर मैं तो पढ़ती हूँ। मुझे पाप लगेगा।” 25 “सहर की औरत को पाप नहीं लगता, गाँव की औरत को पाप लगता 2» खनन 0): म 8 है। (६| मैं भी हँस पड़ी और अंगूरी भी। अंगूरी ने जो कुछ सीखा-सुना हुआ था, “61 उसमे उसे कोई शंका नहीं थी, इसलिए मैंने उससे कुछ न कहा। वह अगर हर ५ | हँसती-खेलती अपनी जेन्दगी के दायरे में सुखी रह सकती थी, तो उसके |; लिए यही ठीक था। वैसे मैं अंगूरी के मुंह की ओर ध्यान लगाकर देखती 9), ४६ | | रही। गहरे सॉवले रंग में उसके बदन का मांस गुँथा हुआ था। और मैंने ।# !8६| इस अंगूरी का प्रभाती भी देखा हुआ था, ठिगने कद का, ढलके हुए मुँह 2 इक का, कसोरे जैसा। और फिर अंगूरी के रूप की ओर मुझे उसके मर्द के बारे में एक अजीब तुलना सूझी कि प्रभाती असल में आटे की इस *1। घनी गुँथी लोई को पकाकर खाने का हकदार नहीं-वह इस लोई को ढककर ।॥ ६५| रखने वाला कठवत है।....इस तुलना से मुझे खुद ही हँसी आ गई। पर मैं |£




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