सफलता के शिखर की सीढियां | SAFALTA KE SHIKHAR KI SEEDHIYAN

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५९२ सफलताके शिखरकी सीढियाँ है ही जी कमी जी औ उसे जी है है: हि है कैद करे कै के जब कह नस है कौ जी जौ उस जी औए है की के #। औ उन फ़ को की करे कै हि पट कै कह की जी उसे की है है कि |मि 'औ के की की पे कि कर के की ये पे जे सेफ के, तुम्हारे पास है, तो यह समझो यहाँ उस वस्तुके यथार्थ स्वामी भगवान्‌ ही तमसे अपनी वह वस्तु चाह रहे हैं। अतएवं विनम्रताके साथ आदरपूर्वक उनकी वस्तु उन्हें अर्पण कर दो और इसमें अपना सौभाग्य समझो । याद रखो--किसी भी वस्तुके लिये तुम कभी यह न समझो कि यह तुम्हारी है और न उसके लिये अभिमान करो। अपने लिये जितनी कम-से-कम आवश्यकता हो उतनी भगवान्‌का कृपाप्रसाद समझकर ग्रहण करो और शेष सब उन्‍्हींकी सेवामें लगाते रहो । याद रखो--सभीमें सदा-सर्वदा भगवान्‌ बस रहे हैं, वर भगवान्‌ ही समस्त अनन्त विविध रूपोंमें अभिव्यक्त हैं। यह समझकर सभीका मान करो, सभीसे प्रेम करो, सभीका आदरयुक्त हित करो | दीनोंमें दयालु बनकर मत जाओ, दीन होकर ही जाओ और उनके दुःखको अपना दुःख अनुभव करके उनका दुःख दूर करनेका प्रयत्न करो । याद रखो--दूसरेके दुःखसे सहज दुःखी होकर हृदयमें जो एक द्रबता होती है और उसे दूर करनेके लिये जो त्यागमयी वृत्ति उत्पन्न होती है, उसका नाम 'दया' है। दया अपना-पराया नहीं देखती, दया अभिमान नहीं आने देती, दया सेवा तथा त्यागमें सुखका अनुभव करती है, नम्नता लगती है और जिसकी सेवा तुमने की, उसके हृदयमें अपनी न्यूनताका उदय नहीं होने देती, बल्कि उसे भगवानकी कृपाका अनुभव कराती है। ऐसी दया--पर-दुःखको निज-दुःखके रूपमें परिणत कर उसे तन-मन-धनसे दूर करनेकी स्वाभाविक प्रवृत्ति करनेवाली हृदयकी कोमलतम वृत्ति--बहुत ही अच्छी चीज है। इसे अवश्य धारण करो, पर दयालुताका अभिमान न करो, अपनेको कभी बड़ा मत मानो । याद रखो--दीनोंके सामने धनीपनकी शान दिखाना एक अपराध है । दीनोंपें दीनोंकी भाँति ही रहो । उन्हें जितना ऊँचा उठा सकते हो, उठाकर उन्हींके साथ-साथ अपना. रहन-सहन भी ऊँचा कर लो। पर अपने बैभवका विज्ञापन मत करो, अपनेको प्राप्त वस्तुओंका अभिमान करके




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