कपाल कुण्डला | Kapal Kundala

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Kapal Kundala by प्रतापनारायण मिश्र - Pratapnarayan Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १८ उजियासा देखा । योकी कच्टों थम थे हो इस स्विये लवकुमार ध्यान लगा के उस को आर देखने लगीं । आलोक परिधि क्रम क्रम मे व््तायन आर उप्वलतर चोने लगो --अोर आर्नथ नाक कें। प्रतोति हुई । इस में नवकुमार को जावनाशा फिर से उदास शुई । मसुष्य के ससागम बिना इस आसो के को उत्पत्ति का संभव सच्ों है कया कि चर दाकासन का समय नड़ों है | नवकुसार टच साज कर उठे आते जिध्नर श्रालोक था उसों अश को चले । एक बाग सन में विधान घन सौतिक आलोक है ? हां भी सकता कै किन्तु शक्ता मे निरस्त रहने छो से कोमे जीवन रखा छोगो यद माल के निभय चित्तपूवक श्रालोककों लक्ष्य करके चले । हसलता अं घालुकास्तुप प्रतिपद में उन का गतिरोध करने लगे । घर से स्लता को पददलित करके आओ बालुकास्तुप को लंघित करके घले। आत्तीक के निकट प्रश्ुच देखा कि एक अत्यज सालुकाशिसर के कापर अग्नि जलती है। उम की प्रभा से शिखरासीन समुष्य की मूर्ति आाकाशपर में चित्र को तरद दिखाई देता है। नवकुमार उस के पास पइचने की सनसा से पूर्णवेग के साथ चले । अंत में स्तृप के ऊपर आरोदण करने लगी । उस समय किंचितू शंका रन शर्म तथापि अकंपित चरग से स्तुप के ऊपर आरोइण करने लरी । अफ्तु निकट जाके जो कुछ देखा उस से रॉए खड़े इसे थे ठडर कि लौट चलें कुक स्थिर न कर सके शिखरासौन मनुष्य नवन मंदे हुए ध्यान कर रहा या उस मे पहले नवकुमार को नहों देखा । नवकमार ने देखा कि उस को वय क्रम पाय पचास वर्ष का होगा । परिघान में कोई कपड़ा के




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