कामायनी की टीका | Kamayani Ki Teeka

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Kamayani Ki Teeka by दुर्गाशंकर मिश्र - Durgashanker Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहला सर्ग चिन्ता | € प्राचीने मारतीय साहित्य की परम्परा के ही अनुकूल है। साथ ही यहाँ 'अवयव की हढ मास' पेशियाँ' सें शरीर की इढता, 'ऊर्जस्वित था वीर्थ्य अपार” से मन का सयम एवम्‌ ब्रह्मचर्य व्रत और 'स्फीत शिरायें स्वस्थ रक्त का होता था जिनमे सचार' से शरीर की स्वस्थता की ओर मी सकेत किया गया है । ठुलनात्सक हष्टि--महाकवि कालिदास ने भी '“रघुग्श' महाकाव्य मे सजा दिलीप के अपार शक्तिशाली ओजस्वी शरीर की रम्यता का चित्रण करते हुए कहा है-- व्यूढोरस्को. वृषस्कन्घ.. शालम्राथुर्मलाभुज । आात्मकर्येप्षम देह क्षात्रो धर्म इवाश्रित ॥ सर्वातिरिक्तसारेण सवतेजोभिभाषिना । '. थित सर्वोज्नतिनोवी क्रान्त्वा मेत्तरिवात्मना । चिन्ता कातर सघुमय स्रोत । शब्दार्थ--कातर --व्याकुल, उद्धि्त । चदन्-सुख । पौरुष-्पुरुषार्थ, पराक्रम | भोतप्रोत>-परिपूर्ण, पुर्णरूप से भरा हुआ । यौवन कान्ल्युवावस्था का 1 मधुमय स्रौत-->मधघुर झरना परन्तु यहाँ पर मघुर या प्रेमपूर्णें मावनाओ से असिप्नाय है। ः च्यस्या--यद्यपि वह ऐंक परिपुष्ट और पराक्रमी युवक ही था और उसके शरीर से अनुपम पौरुप भी झलक रहा था पर साथ ही वह चिस्ता के कारण ऊच-कुछ व्याकुल मी जान पडता था । हसी प्रकार उस व्यक्ति की ह्ृदय-स्थली मे यौवनकालीन अनेक सधघुर भावनाएँ भी विद्यमान थी परन्तु वर्तमान परिस्थितियों मे वह उस ओर ध्यान नही दे पा रहा था । वस्तुत उपेक्षामय यौवन से कवि का अभिप्राय यह है कि युवक होते हुए भी सनू युवा जीवन की मादफ स्मृतियो से बिरत ही थे क्योकि शोक के सामने प्रेम मावनाएँ स्थिर नहीं रह पाती अत चिंताग्रस्त मनु का अपने यौवन के प्रति उपेक्षित रहना स्वाभाविक ही है । टिप्पणी--इन पक्तियी मे हमे मनोवैज्ञानिकता के दर्शन होते हैं और कवि प्रसाद ने विरोधी परिस्थितियों मे भी अपने कथानायक के चरित्र का सफल चित्रण किया है । इस प्रकार मनु के सुख मडल पर चिन्ता के कारण विपाद अवश्य हे पर उनका पौरुष भी स्पष्ट रूप से 'झलक रहा है। डा० शुलावराय के कथनाचुसार भनु जिस रूप में हिंमगिरि पर दिखाई देते हैं, वह




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