भक्ति काव्य के मूल स्त्रोत | Bhakti Kavya Ke Strot

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Bhakti Kavya Ke Strot by दुर्गाशंकर मिश्र - Durgashanker Mishra

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about दुर्गाशंकर मिश्र - Durgashanker Mishra

Add Infomation AboutDurgashanker Mishra

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
डी भक्ति-साधना का क्रमिक विकास १५ है और जैन धर्म में तो तीर्थकरों की भक्ति पर ही विशेष जोर दिया गया है. तथा पुराणों में भी उसे जीवन का एक आवश्यक तत्व माना गया है । इस प्रकार भवित की यह धारा प्राचीन समय में अनवरत गति से प्रवाहित होती रही है और उसे ज्ञान, जप; तप; ब्रत; तीर्थ, योग, यज्ञ आदि से श्रेष्ठ माना. जाता रहा है।” इस्लाम धर्म में भी भक्ति साधना पर विशेष जोर दिया गया है और मुहम्मद साहब का तो यहीं उपदेश था कि परमेश्वर एक है । मुहम्मद ईश्वर के अनुराग में मस्त दो जाता था और आठवीं सदी में तो खुरासान आबू मुस्लिम आदि संत परमेश्वर के अनुराग में इस प्रकार तन्मय हो गए कि अपने आपको ईश्वर ही समझने लगे । ईश्वर को उन्होंने इस प्रकार आत्म- समर्पण किया और उसमें वे इस प्रकार तन्मय हो गए कि समस्त भेद-भाव ही विज्ञुप्त हो गए । इसी भक्ति-मागं को आगे चलकर फारस के धुनिया संत हहलाज द्वारा सूफी धर्म का रूप दे दिया गया | हर्लाज का कथन है कि जो कोई भी तप द्वारा अपनी आत्मा को पवित्र कर सांसारिक कामनाओं से मुक्त हो जाता हैं उसमें ही परमःत्मा का प्रवेश हो जाता है । जब वह इस आध्यात्म, गति को प्राप्त होता है तब उसके समस्त कार्य दैश्वर के कार्य कहलाने लगते हैं और जो दुछ वह चाहता है वही होता है । , सूफी धर्म द्रंतगति से समस्त मुस्लिम जगत में व्याप्त होने लगा तथा प्रसिद्ध मुस्लिम विद्वान्‌ और उपदेशक अलगण्जाली के समय तक .दह समस्त मुस्लिम संसार में व्याप्त हो चुका था । सूफी धर्म में वेदार्त और भव्ति-मार्ग का सामंजस्य सा पाया जाता हैं तथा वह ईश्वर को ही सवव्यापी मानता; है और एकमात्र उसकी ही आराधना पर जोर देता है । दुछ सूफियों को तो यह भी विश्वास सा हो गयां था कि वे ईश्वर में सम्मिलित हो गए हैं और उन्होंने अपने लोचनों से परमेश्वर की छवि को निहारां भी है तथा उससे सम्भापण भीं किया है । जहाँ कि 'इस्लाम का कथन है कि परमेश्वर की प्रशंसा हो बहाँ इसकी अपेक्षा आबू यजीद विस्तामी का कहना है कि “मेरी प्रशंसा हो ।” सूफी -महन्तों ने “हम ऐसा कहते हैं” के स्थान पर “परमेश्वर ऐसा कहेने- हैं” लिखना प्र[रम्भ,किया .| अतप्तव सूफियों का यह आदर्श सा हो गया. किउन्हें हैश्वर.... के, अतिरिक्त और कुछ भी दुष्टि कि इेश्वर * रा कि शोचर न हो तथा उनके शान: और, कर्म-देश्वर क्री .आराधना रूपी फ़दचि में मिल जाएँ । इस प्रकार हम देखते हैं कि भक्ति का महत्व प्राय सभी प्रधान पवार #. कसिवाकाइकीसॉय' बमविर सिविल गा फकमवसलेपनिनकक-+ री िरे 2 १ दे० श्रीमदर्शागव्त्‌ महाक्यू अन रे शलीक नकरेग |




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now