भक्तिसागर ग्रन्थ | Bhakti Sagar Granth

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(७ ) नहिं संगय यह भेद समझायो है । कहे सरसमाधुरी सुनाय सब भक्तनको रस समुद्र सगुन त्रह्म पुरुपोत्तम बतायों है ॥ ८ ॥ छहों मुक्तिमारग की रहस्य कही याके बीच प्रेम को परत स्व उत्तम दृढ़ायो है। प्रेम के समान नहीं और कुछ बतायो आन ज्ञान प्यान का तुच्छ दरसायो है ॥ आदि मध्य अन्त भक्तिसागर में भठी सबको सरताज प्रभु प्रेम को जनायो है। कहे सरसमाघुरी सुनाय सब रसिकनको जिनने कुछ पायो एक प्रेमद्दी से पायो है ॥ ६.॥ बिना पढ़ें वेदनके वेदतत्व जानपरे बिना शाख्र श्रवण किये समभे बात सारी है । बिना किये जोगके जुगती सब जानलेव। बिन बिराग त्याग भेद पावत नर नारीहै ॥ बिना किये तीरथ के तीरथफल प्राप्होत बिना जाप अजपा के उक्ति उरबिचारी है । कहे सरसमाघुरी सुनाय सब सन्तनको बांचे भक्तिसागर होत भवसागर पारी है ॥ १० ॥ ._ श्रीदरिके सुमिरनमें सुरति निरति ठगे जाय नेनन में बसे झाय ध्यान प्रिया श्यामको । अमरठोक लीढा को अवुभव दियमाहिं फुरे दरसन लगजाय तात्काल रूप धामको ॥ रासादिक छीठाकी लडित रीति जानपरे दिये माहिं भरे आय प्रेम अष्ट जामको । कहे सरसमाघुरी सुनाय सब भक्तन को श्रन्थ भक्तिसागर है रसिकन के कामकों ॥ ११ ॥ सरठ और सुगम देश भाषा सो भूपित है झतिही निर- दूषित यह वानी परम पावनी । पढ़ते ही झक्षर के अर्थ ज्ञान परेजान पर्मभूल सवदी संदेह की नशावनी ॥ प्रेम प्रगटावनी रंगभक्ति की बढ़ावनी है झतिही सुहावनी सन्त भक्तन मन- भावनी । हरि रस सरसावनी छवि दग्पति छकावनी सरस-




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