भारतीय काव्यशास्त्र नई व्याख्या | Bhartiya Kavya Shastra Nai Vyakhya

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Bhartiya Kavya Shastra Nai Vyakhya by डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी - Dr. Rammurti Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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झा भारतोय काम्यशास्त्र : नई व्याध्या काव्य में सदा से अविशेष नही है, वह तो अविशेष है ही, पर युगीन प्रभाव के रूप में आज महत्व पा गये है- ये जदिलतर रागात्मक सम्बन्ध । अद्यतल कथिता में 'असुभति के स्वरूप पर विचार करते हुए भी श्री विजयदेव नारायण साही एवं डॉ० नामवर सिंह तो उसे हीरे की संरचना से उपसित करते है जहाँ संरचना ही संरचना है और कुछ है ही नहीं । यदि आज की उत्कृष्ट कबिता में अचुभूति ही निखालिस है--किसी अन्य विजातीय द्रव्य का बहाँ सिश्रण ही नहीं है--तब तो “रस” (अनुभूतिमाव) के विपक्ष में कुछ कहने को मिलता ही नहीं । यदि “अनुभूति” के स्वरूप के विएय में ही कोई गहरा मतझेद हो तो उसे स्पष्ट उभरकर आना चाहिए । जिस प्रकार “रस” का विरोध करते हुए उसकी स्वीकृति में अथेवाद (व्याख्या) की अपेक्षा शर्ते के रूप में प्रस्तुत की जाती है, बसे ही मेरी भी जिज्ञासा है कि थे नव्य समीक्षक जिस “अनुभूति” की बुनावट को हीरे की संरचना से उपमित करते हूं उसका भी विवरण और समन्वय व्याख्या के आधार पर दें, तभी बात आगे बढ़ सकती हैं 1 जब डाँ० नामवर सिंह उत्क्रेप्ट काव्य के प्रतिमान के रूप से अ्वान्‌ शब्द के माध्यम से आवयविक अखण्डता की बात करते है; मुक्तिबोध ज्ञानात्मक संवेदना और सवेदनात्सक शान की चर्चा चलाते हैं, ध्वनियों और चित्रों के साथ संवेदना प्रभाव के संवाद और आनुरूप्य पर बल देते है, गिरिजाकुमार माथुर संवेदना की कलात्सक अभिव्यक्ति को काव्य कहते हैं, काव्य के संदर्भ में भावपक्ष, दिम्वपक्ष और नादपक्ष के पारस्परिक सम्बन्ध की प्रत्यभिज्ञा को महत्त्व देते है, जब जगदीश थुप्त अनुभूति और अभिव्यक्ति की सच्चाई को ही कांव्योचित 'नवता' का सुलसन्य कहते है; जब धिज्ेय” सर्जनात्मक शक्ति के अस्ति्च की पहुचान एकाणिता की संभावना के सिंगशेष होने मे स्वीकार करते हैं; जब पंत आदि छायाबादी झकार से चित्र और चित्र से झकार की समरसता को काव्य का निकष सानते है, तब सुद्र्वर्ती भारतीय आचार्य--कुतेक; अभिनवयुप्त और जान्दवर््धन--का यह उद्घोध कि अलकार और अलंकार्य की तात्विक भूमि पर अखण्डता; काव्योचित उपकरणों की परिवृत्यसहता; काव्य की सहज स्फूति भी हमें निराश नहीं करते । अन्दर प्रविष्ट होकर सहादुभुति के साथ देखने पर थे सारे-कें-सारे प्रतिमान काव्य के समस्त उपकरणों में एक सहजता की माँग पर केन्द्रित जान पड़ते है । भेद प्रतिमान की मुल वृति में नहीं है--युगोचित काव्यक्तियों के अनुरूप उससे मिर्ग उपसूपों में है । ये उपरूप जड़ और विकृत हो सकते है--इस्ही को मूल बूत्ति




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