वैदिक - कर्तव्य - शास्त्र | Vaedik - Kartavya - Shastra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ख्रातूभाव तथा मित्रदृष्टि। श्५ यथा नः सबे इज्जनों ब्नमीवः सडगमे सुमना असत्‌ ॥ य० ३० । ८६ अथांत्‌ हमारा व्यवहार इस तरद का हो जिससे ( सर्व इत्‌ जनः ) सच के सब मनुष्य ( नः संगमे ) हमारे संग में ( अन- मीचः ) नीरोग तथा (सुमनाः) उत्तम मन वाले अर्थात्‌ प्रीतियक्त ( असत्‌ ) दो जाएं | (३) अथवंबेद तृतीय काण्ड के ३० वें सूक्त में इसी वात को घहुत दी साफ शब्दों में बताया गया हे जिसमें से दो मंत्रों को यहां उद्धुत किया जाता दे-- सद्ददये सांमनस्यमविद्वेप॑ कुणोमि वः । भन्यो अन्यमभिद्दयंत घत्सं जातमिघाध्न्या । परमेश्वर सब मनुष्यों को उपदेश करता है कि में (वः ) तुम्दारे अन्दर ( स-हृदयमू ) समानहृदय और ( सांमनस्यं ) समान प्रीति युक्त मन तथा ( अ-वि-द्वेष॑ ) द्ेघषका सचंधा अभाव ( छणोंमि ) स्थापित करता हूं ( अध्न्या ) गाय ( जात॑ चत्सं इच ) जैसे नये चछडेको प्यार करती हैवैसे तुम ( अन्यों अन्यम्‌ ) एक दूसरे के साथ ( अभि दयंत ) प्रेस करो । ( ४.) अथव के उसी सुक्तकां ४ थे मंत्र इस प्रकार है-- येन देवा न वियन्ति नो च विद्विषते मिथः तत्कुण्मो घ्रह्म वो गददे संज्ञान परुषेभ्य ॥ अर्थात्‌ ( येन ) जिस शान को प्राप्त कर के ( देवाः ) विद्वान छोग ( न वियन्ति ) विरोध को नहीं प्राप्त ोते ( नो घ सिथः चिद्विषते ) और न परस्पर द्वंघ करते हैं ( वः ) तुझारे ( गृहे ) घर में ( पुरुषेभ्यः ) सब पुरुषीके लिये ( ततू ब्रह्म संज्ञान ) वह बडा विस्तृत ज्ञान ( कृण्मः ) देते हैं । यहां वैदिक ज्ञानसे अभि- प्राय है जो सम्पर्ण विरोध भाव को हटाकर परस्पर प्रीति हम न दिपु पल गयप्रा रा पर रु गे




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