हमीर रासो | Hamir Raso

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Hamir Raso by जोधराज - Jodhraj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११. ) वृत्तांत कहू सुनाया और उसी कण परिवार सहित वह दिल्ली से वल दिया । महिमाशाह जिस किसी राजा राव के पास जाता वहद गे शाह अलाउद्दीन का ढषी समभकर तुरंत ही अपने यहाँ से बिदा घर देता इसी प्रकार फिरते फिरते जब चह॒राव हस्सीर की छ्योढ़ों र पहुँचा ्मौर उसने श्पने झाने की इत्तला कराई तो राव जी नें से बड़े ही संमानपू्वक डेरा दिलवाया श्लौर दूसरे दिस अपने ररवार सें बुलाया । दरबार में पहुँचकर महिसाशाह ने पाँच घोड़े रक हाथ दो मुल्तानी कमान एक तलवार दो बाण दो बहुमूल्य पोती व्मौर बहुत से ऊनी वख् राव जी की नजर किए जिनको राव जी ने सादर स्वीकार कर लिया । उसी समय सीर सहिमाशाह ने अपनी बीती भी राव जी से निवेदन करके सविनय कहा -में अ्रलाउद्दीन के विरोधियों में से हैं । यदि आपमें मेरी रक्षा करने की राक्ति हो तो शरण दीजिए अथवा मुझे भाग्य के भरोसे पर छोड़ दीजिए । सीर के ऐसे वचन सुनकर हम्मोर ने कहा कि हे मोर मैं तुमे ौभयदान देकर प्रण करता हूँ कि इस मेरे तनंपिंजर में प्राणं पखेरू के रहते एक क्या सहखों बादशाह तेरा चाल चॉका नहीं कर सकंते--यह रणथंभ का अमेय दुगं .ये अपने राजपूत वीर थवा में स्वयं अपने को युद्धासि सें आहति देने को प्रस्तुत हूँ परंतु तुझे न जाने दूँगा । इस प्रकार कहकर राव हम्मीर ने उसी समय मीर को पांच लाख की जागीर का पढ़ा कर दिया मोर तय से मीर आासंद- पूर्वक रगार्थभोर के झमेय दुर्ग में रहने लगा । इधर चादशाह के रुप्तचरों ने उसके संमुख यह समाचार जा सुनाया जिसके सुनते दी झला उद्दीन पूछ कुचले हुए काले सप की तरह क्रोधित हो उठा किंतु वजीर बहदराम खाँ ने लागत उपद्रव के टालने अथवा समीर मद्दिमा के पक्षपात की इच्छा से दत्त को उाटकर फद्दा कि जिस मीर को सात समुद्र पार भी ठिकाना देनेवाला कोई नहीं हैं उसे हस्मीर क्या रखेगा। इसपर दूत ने पुनः फद्दा कि यदि सेरी यातों में कुछ भी असत्य हो तो में उचित दंड पाने के लिये




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