सलीब पर | Saleeb Par

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Saleeb Par by दीप्ति खण्डेलवाल - Deepti Khandelwal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वह बार-बार सुनती है--बया कमी है स्‍झ्मापक्े ? ऐसा जीन साथी, ऐसे बच्चे, भौर ऐसी भाष स्वय॑''*! भौर भ्रव तो यह ढेर-सा यश भी ! तब उसके भीतर कुछ सिर पटडने लगता है--भौर देह की एक उमर-कैद नहीं**? उसे यदि कोई सहसा देखे तो एक संपूर्णता का ध्ाभास होना निश्चित है 1 प्रायः उसने भी सुना हँ--ए परफेक्ट वुमन नोवली प्लांड *“लेकिन यह संपूर्णता कितनी खंडित, कितनी जर्जर है'*'मह कौन - जानता है ? उसकी थाहरी सज्जा साधारण होती है। किन्तु भीतर की कोई सज्जा उसके व्यक्तित्व में श्रतिभासित होती-सी उसे कुछ प्रमाधारण बना जाती है । वाहरी सज्जाप्रों पर तो उसदग वश नहीं रहा, किन्तु भीतर की सज्जा को वह पल-पतल संवारती-सहेजती रही है'** इस संपूर्णता को संडित स्तरों पर भैलती, घुटन को मुक्ति देने, कुछ देर जीने, वह कभी-कभी हो लिसती है भौर फिर सुनती है--प्राप इतना प्रधिक बँसे लिख लेती हैं ? पता नहीं, यह सब कंसे'''क्यों''*? इन प्रश्नों का कोई निश्चित उत्तर उसके पाम नहीं है **“ग्रौर उसने कमलेशवर जो को एक पत्र में लिखा है--नितान्त व्यवितगत संदर्भों में मेरा व्यक्ति बहुत थक्ग, बहुत लड़सड़ाया हुमा है *““झ्ौर मेरा लेप्क थकी, तिस्पंद होती उंगलियों में लेखनी थामे भीतर झोर बाहर के विरोधों से जूक रहा है'*'ऐसे में किसी रचना का स्वीकार जैसे उस भ्तित्व का स्वीकार बन जाता हैं, जो मृत्यु के दम- चोट क्षणों में सांस के लिए संघर्ष कर रहा हो*““मेरा लेखन मेरे लिए ऐसी ही सामसे हैं'**लिखती हूं कि इन दमघोंट क्षणों मे बुछ सासें शोर से सद(*''कुछ देर भौर जी सकू “और वस***




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