सलीब पर | Saleeb Par
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
170
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)वह बार-बार सुनती है--बया कमी है स्झ्मापक्े ? ऐसा जीन
साथी, ऐसे बच्चे, भौर ऐसी भाष स्वय॑''*! भौर भ्रव तो यह ढेर-सा
यश भी ! तब उसके भीतर कुछ सिर पटडने लगता है--भौर देह की
एक उमर-कैद नहीं**?
उसे यदि कोई सहसा देखे तो एक संपूर्णता का ध्ाभास होना
निश्चित है 1 प्रायः उसने भी सुना हँ--ए परफेक्ट वुमन नोवली प्लांड
*“लेकिन यह संपूर्णता कितनी खंडित, कितनी जर्जर है'*'मह कौन -
जानता है ?
उसकी थाहरी सज्जा साधारण होती है। किन्तु भीतर की कोई
सज्जा उसके व्यक्तित्व में श्रतिभासित होती-सी उसे कुछ प्रमाधारण
बना जाती है । वाहरी सज्जाप्रों पर तो उसदग वश नहीं रहा, किन्तु
भीतर की सज्जा को वह पल-पतल संवारती-सहेजती रही है'**
इस संपूर्णता को संडित स्तरों पर भैलती, घुटन को मुक्ति देने,
कुछ देर जीने, वह कभी-कभी हो लिसती है भौर फिर सुनती है--प्राप
इतना प्रधिक बँसे लिख लेती हैं ? पता नहीं, यह सब कंसे'''क्यों''*?
इन प्रश्नों का कोई निश्चित उत्तर उसके पाम नहीं है
**“ग्रौर उसने कमलेशवर जो को एक पत्र में लिखा है--नितान्त
व्यवितगत संदर्भों में मेरा व्यक्ति बहुत थक्ग, बहुत लड़सड़ाया हुमा है
*““झ्ौर मेरा लेप्क थकी, तिस्पंद होती उंगलियों में लेखनी थामे भीतर
झोर बाहर के विरोधों से जूक रहा है'*'ऐसे में किसी रचना का
स्वीकार जैसे उस भ्तित्व का स्वीकार बन जाता हैं, जो मृत्यु के दम-
चोट क्षणों में सांस के लिए संघर्ष कर रहा हो*““मेरा लेखन मेरे लिए ऐसी
ही सामसे हैं'**लिखती हूं कि इन दमघोंट क्षणों मे बुछ सासें शोर से
सद(*''कुछ देर भौर जी सकू “और वस***
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