नारी का मन | Nari Ka Man

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Nari Ka Man by दीप्ति खण्डेलवाल - Deepti Khandelwal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बेदया/ 13 तो बच्चे को भी पोत देती । दिन में दो वार अपनी साड़ियां बद- सती तो इन सब अत्याचारो के लिए चीख-पुकार मचाते शिशु को धप्‌ जड़ती उसके झबले कुरते भी ज़रूर वदलती और जीवन में पहली वार उसने स्वेटर बुना उसी चाटे खाते शिणु के लिए जिसे शुक स्तन पी चुकने के वाद वह घमीटकर दूसरे स्तन से लगाती घड़वडापा करती--मर पी ले निगोडे तो छाती तो हलकी होवे । मार इत्ता दूध कहा से फट पड़ा है इन छातियन में भगवान ही जानें । भगवान का नाम भी चन्दा की जवान पर एक गाली- सा ही बनकर आता । वरना भगवान से तो डर कहने बालों को वह सुना चुकी थी--काहे डरू ? ये तुम्हारे भगवान थानेदार है कया जो हथकडी लगवाय देंगे भरे मुओ तुम अपनी फ़िकर करो सरग जाने की चन्दा को तो ई दुनिया में भी नरक मिला है ऊ दुनिया में भी मिलेगा चलो अपना तो नरकई भत्ता दुनिया के साथ स्वर्ग और भगवान को भी ठेंगा दिखाती चन्दा ने एक चुनौती देता-सा गाना और सीख लिया था-- भगवान दो घड़ी जरा इन्सान वन के देख दुनिया में चार दिन जरा मेहमान बन के देख चन्दा ने अपने बेटे का नाम रखा--अशोक कुमार । वह अशोक को असोक कहती या कह पाती । असोक फहती आवाज़ देती रोमाचित हो उठती-- और नहीं तो क्या वुढऊ लालचन्द के वेटे का नाम मुलचन्द घरूं . अरे मेरा बेटा तो असोक है--असोक कुमार न इसे पनवाडी बनने दूगी ये तो उचा अफसर बनेगा अफसर देय लेना हा भर चन्दा ने सचमुच अशोक को एक अच्छे प्राइमरी स्कूस में भरती करवा दिया । बढ़ते खर्च के एवज मे बहू भी खुले आम दाहर के बिगड़े रईस धनश्याम की रखैल बन गई । शाम को सेठ धनश्याम दास की मोटर सप्ताह मे एक था दो वार आठी । चन्दा साझ ढते जाती रात गए आती 1 भाती तो उसके कदम लड़खड्टाति होते शराव




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