भट्ट - निबन्धावली भाग - 1 | Bhatt Nibandhawali Bhag - 1

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Bhatt Nibandhawali Bhag - 1 by देवीदत्त शुक्ल - Devidutt Shukla

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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झसार कभी एक सा न रह्ठा श१ बातो 11 “इ्रहस्पहुति सूताति पक्यत्ति मम्मस्दिरे) प्रेपा' क्रीबिसू विज्तृप्ति किमाइचपेजह: बरम्‌। संसार कभी एक-सा ते रहा हमारा बह पसिद्धास्त अब शाषा मल में । और अरब झूामे बढ़िये। पस्चमृतात्मक पठपप्राणबाले जीम जो इस चल्न और अतार संसार में एक से त रहे तो कौन अच रज है जद अटल और सदा के सिये स्थिर बड़ु-बड़ पहाड़ सैरूड़ों कोस के पैशाम और जंमल भी कापत बार और के और हो जाते है । “पुरा बहचोत' पुसिसमभवतज तरिताम्‌। जिपर्यासंजातों पनविर्ण ज्य' लितिष्दाम्‌।! इतर राम-चरिए में मगजूति कबि छितते है कि दष्डक् बन में भो पहिले धोठे रहे दे गरिशों के प्रभाह के कारण रूम पूलित बा गये भते और दिरते जंगलों में उच्नर-पूचट हो यई बहाँ बगा ए॑पस वा गहाँ अम कही गही शे-एक पैड रह गये जौर जो शिल्कुश्न पठारौ पैदान पा बह घमे भंपक मे अप या इत्पारि! तो विए्दय हुआ कि परिवर्तन जिसके हमारे पुराने शुहरे शत्यस्त दिउड हैं इए अर्विर जनत्‌ का एक पुरय पर्म या यूभ है। बहौ रपये सोप इस परिदध् पर मतमंत शे होरर बिड़ते मही गरत्‌ इसे तरब्टी की पक सीदी मानते हैं। हमारे अमाग से भारत में परिषततन को यहाँ तद्ू लोग शरा शमाते है कि दिल-टस अरपस्त शिरी दफ्या में झाकर मी बरिदर्षन को ओर बहौँ पत दिया आाहपे मई इपारी परिदर्तग-विमुराता हो का भारणल हू कि हमार दर्द ते शिरेष्तियों गा पदाभात हहकर भी बसी एक सच भर के सिये जौरगी-ाड़ी में एजत-सम्धाशन मे हुआ । जैसी एश्स भी तरस्वी इस प्रप्ौसजी प्रवाष्टी में हमारे देश में हुई ६ जैसी किसी दूसरे देश में होती टो बह देस मूमध्दप वर पिरोपधि हो जाता । परिषर्षत द्थिराता के दारप इस शबय भी विदागूद्धि दाल में बड़ जी पौति भासव होती हूँ और दो पौया कम वहाँ है सोपों में दैसा जाता है उठते




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