शेर - ओ - सुखन भाग 5 | Sher O Sukhan Bhag 5

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अयोध्याप्रसाद गोयलीय - Ayodhyaprasad Goyaliya

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लक्ष्मीचन्द्र जैन - Laxmichandra jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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न्न््न ९. ० मिल जाता हें । पर तुम जानो, 'प्रकादा' श्र 'ज्योती' जैसे भाई लोगोंके बगर क्या तादाका मजा * वे दौककी महफिले थी, यहाँ धघा समभो । तुम्हीं कहो. कि. गुज्ञारा सनस-परस्तोंका । बुतोंकी हो अगर ऐसी ही खू तो क्यों कर हो ? रावलपिण्डी १८-१२-४६ * * “पत्रका उत्तर तो तुरन्त दोगे ना ? श्ररे बाबा मुझे कहो तो में डालमियानगर भी श्रानेको तैयार हूँ । 'साइल'का वह बेश्नर याद दिला दूँ-- शबे-वअुदा वोह आ जायें, न आयें मुक्ककों बुलवालें । ५ इनायत यूं भी और यूँ सी, करस यूँ भी हू और यूँ भी ॥ रावलपिण्डी ९-१-४५ “तये साठकी बधाई । मगर झ्राप हे कि चिट्ठी ही नहीं लिखते । भई ऐसा नहीं चाहिए। बकौल 'जिगर'-- एक तजल्‍ली एक तबस्सुम एक... निगाहे-बन्दानवाज़ बस यही कुछ हमारे लिए काफ़ी हें । रोहतक ९-२-४७ [पत्रोत्तर देनेमे मुझे विलम्ब हुआ तो बतौर उलाहना पत्रमें रविश सिद्दीकी केवल निम्न शेश्रर लिख भेजा ।] जिन्दगी क्यों हमातन गोश हुई जाती हे। ० कभी आया हूं जो आयेगा पैगास उनका ?' रोहतक २४-३-४७ “्रापको रावलपिष्डीके नूरपुरके मेलेके वारेमे बताया था ना ? जहाँ हरसाल कई सौ गानेवाली जसा होती हे श्र बडे ठाठका मेला




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