शेर - ओ - सुखन भाग 5 | Sher O Sukhan Bhag 5
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7.07 MB
कुल पष्ठ :
214
श्रेणी :
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अयोध्याप्रसाद गोयलीय - Ayodhyaprasad Goyaliya
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लक्ष्मीचन्द्र जैन - Laxmichandra jain
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)न्न््न ९. ०
मिल जाता हें । पर तुम जानो, 'प्रकादा' श्र 'ज्योती' जैसे भाई लोगोंके बगर
क्या तादाका मजा * वे दौककी महफिले थी, यहाँ धघा समभो ।
तुम्हीं कहो. कि. गुज्ञारा सनस-परस्तोंका ।
बुतोंकी हो अगर ऐसी ही खू तो क्यों कर हो ?
रावलपिण्डी १८-१२-४६
* * “पत्रका उत्तर तो तुरन्त दोगे ना ? श्ररे बाबा मुझे कहो तो में
डालमियानगर भी श्रानेको तैयार हूँ । 'साइल'का वह बेश्नर याद दिला दूँ--
शबे-वअुदा वोह आ जायें, न आयें मुक्ककों बुलवालें । ५
इनायत यूं भी और यूँ सी, करस यूँ भी हू और यूँ भी ॥
रावलपिण्डी ९-१-४५
“तये साठकी बधाई । मगर झ्राप हे कि चिट्ठी ही नहीं लिखते ।
भई ऐसा नहीं चाहिए। बकौल 'जिगर'--
एक तजल्ली एक तबस्सुम
एक... निगाहे-बन्दानवाज़
बस यही कुछ हमारे लिए काफ़ी हें ।
रोहतक ९-२-४७
[पत्रोत्तर देनेमे मुझे विलम्ब हुआ तो बतौर उलाहना पत्रमें रविश
सिद्दीकी केवल निम्न शेश्रर लिख भेजा ।]
जिन्दगी क्यों हमातन गोश हुई जाती हे। ०
कभी आया हूं जो आयेगा पैगास उनका ?'
रोहतक २४-३-४७
“्रापको रावलपिष्डीके नूरपुरके मेलेके वारेमे बताया था ना ?
जहाँ हरसाल कई सौ गानेवाली जसा होती हे श्र बडे ठाठका मेला
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