विवेकानंद | Vivekanand
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3.55 MB
कुल पष्ठ :
144
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)विवेकानन्द | १६
महाकाली का एक सत्दिर बनवाया 1 मन्दिर के पुजारी के पद के लिए उपयुक्त
ब्राह्मण पाने में उन्हें कठिनाई हो रही थी । साघु-संन्यासी भ्ीर सन्त में श्रद्धा
'रखनेवालें धर्मवानू भारत देश में पुजारी के वैतनिक पद के प्रति एक भाश्चर्यननक
उपेक्षा पायो जाती हैं । यूरोप की भाँति यहाँ मन्दिर भगवान की देह धौर
आत्मा नहीं है न भगवान् के दैसिक यजन की पवित्र भूमि मर्दिर सर्वप्रथम
धनिकों द्वारा प्रस्तुत श्लाध्य प्रतिष्ठान हैं--जिनकी प्रतिष्ठापना के द्वारा वे
पुण्पार्जन करना चाहते हूं । सच्ची उपासना तो निजी कर्म है, उसका मन्दिर ती
प्रत्येक एकाकी भरात्मा हैं। फिर यहाँ यह भी प्ररन था कि इस मन्दिर की
प्रतिप्ठापिका शुद्रा होने से उसके पुजारी का पद ब्राह्मण के लिए झौर भी होन
था । रामकुमार ने १८५५ में हारकर उसे स्वीकार कर लिया । पर छोटे भाई
ने, जो जात-पाँत के मामले में बडा कट्टर था, बड़ी कठिनाई से ही इस परिस्थिति
के साय समकीता किया । फिर भी धीरें-पीरे रामकृष्ण का विरोधनभाव शान्त
हो गया भर एक वर्ष पीछे भाई की मृत्यु हो जाने पर वह स्थान ग्रहण करने को
राजी हो गये ।
काली के नये पुजारी की प्रायु तव वीस वर्ष को थी । जिस देवी की सेवा
बा दायित्व युवा पुजारी ने लिया था. वह कितनी विकरास हूं यह उसे ज्ञात सही
था । श्रपने शिकार को सम्मोहित कर लेने वाली सिंहिनी की भाँति देवी मानो
उसी को अपना ओरोदन बनाये उसके साथ खेलती रही श्ौर भ्रगते दस वर्ष इसी
प्रकार देवी की दोप्त श्राँसो के नीचे बीत गये । रामऊृप्ण मन्दिर में देवी के
साथ भकेले रहते थे पर मानी एक तूफान के केन्द्र-विन्दु पर; क्योकि मन्दिर की
देहरी पर साधकों का ताँता सगा रहता था---उनके तप्त उच्छवास मानी मौसमी
आँधी की तरह वहाँ धूल के वगूले उठाते रहते थे । भ्रमल्य यात्री, संन्यासी,
साधु, फकीर--हित्दू श्रोर मुसलमान--श्राविष्टों श्रौर दोवानों की भीड तंगी
रहती थी ।
अनस्तर विवेकानन्द ने रामकृष्ण से पूछा या--“आपने भगवान् को
देखा हूं?”
उन्होंने उत्तर दिया था--“मे देख रहा हूं-ैंसे तुम्दें देख रहा हूँ--पर
बहीं प्घिक प्रकट”, झौर इसमें उनका झाशय सूदम दर्शन का महीं था यद्यपि
उसका भो भम्पास करते थे ।
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