उत्तरपुराण | Uttarapuran
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
39 MB
कुल पष्ठ :
742
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)9 है 10७ छ ॥& 6८ ०्ध्ट ध फट कर्ण
£ | इ0 है ढंडिहटिवडह - हा
है 9५ 151 का पे पढे 7 गाए पछ कि
$ इिशिहफन के लिफ्ट कह
' ४ पहिई छा बढ हि हि 2
हू फ्रा निए छ ७ ्- र प्र हा छः छः,
9. 178 पक र्प८ वि के ड ल् कि
छि हि है 48 15 #. प० (ए री
हि हिए टर हि 1 प् की
8 ०68 कि हक टिक के
| हे, डक | 7 छिइिणि : नां सनोसकूम् ॥ ३ ॥
क्र 13.1 कि मिय ि ि दिया ॥ २॥
के क-क पा, ट ि व हि हु डं बयो महान ॥ है ॥
ड हि क्र कु हि कलडिटि टिक (सकल ॥४॥
पट हु छ श् 2 हक रो हि ४ कि य॑ं त॑ ब्रृण्वते स्म्त यत् ॥ ५ ॥
टि महिऑि आफ कै, क० 1७... पथ स्वग्रजाससा: ॥ ६ ॥
ह्छ ्फ़ ट्रिक - प्िक् है बासौ जैनधर्मेण धार्मिकः ॥ ७ ॥
प् चर फ् पट, | बैः हर
हि हि ड़ क्र का पक ् # (हस्पेबसचिन्तयत् ॥ ८ ॥
््- रि पा टि 8 आज आग ८ पक
हि िि हि छ ग , ४ 2
जी 5 ् > हित 1 अतिहाय रूप बहिरंग छक्ष्मीसे युक्त वे
5 छ हि तट कड कं छ का £ नर्दोष--पूर्वापरविरोध आदि दोषोंसे रहित
है अीइिडिक है £ व रागद्रेषादिरूप मलको धो डाछते है ॥९॥ मैं
जय क्र 9 हट ट हँगा जिसके कि सुननेसे भव्य जीवोंको बाधाहीन
या छ्कडि कि बे ड 5 कषममागम प्राप्त हो जाता है ॥0॥ इस जम्बूद्वीपके अतिशय
हु ८ ७9% 24% 5 ६, दक्षिण तटपर वत्स नामका विशाल देश है ॥श॥ उसमें
कट डिक रु #* हथाछा सुसीमा नामका नगर है। किसी समय इस सुसीमा
हिना ८ 4 बड़ा हो प्रभावशाली था ॥४॥ संसारमें यह न्याय प्रसिद्ध
हं. 8 4 $ असनुष्य गुणोंकी खोज करते हैं परन्तु इस राजामें यह आशख्रर्यकी
है # ५६ हि दए सभी गुण अपने-आप ही आकर रहने लगे ये ॥१॥ बह राजा
हि / भन्त्रशक्ति ओर फछश्क्ति इन तोन शक्तिय्रोंसे तथा उत्साहसिद्धि, मन्त्रसिद्धि और
फछसिद्धि इन तीन सिद्धियोंसे सहित था, आलस्यरहित था और अपनी सन्तानके समान
न्यायपूर्षक प्रजाका पान करता था ॥॥ “घमंसे पुण्य होता है, पुण्यसे अ्थकी प्राप्ति होती है
ओर अर्थसे काम-अभिल्षित भोगोंको प्राप्ति होती है, पुण्यके बिना अर्थ और काम नहीं
मिलते है? यही सोचकर वह राजा जैनघर्मके द्वारा सच्चा घ॒र्मात्मा हो गया था ॥७॥ किसी
समय उस राजाके अनन्वाजुबन्धी, अप्रत्यास्यानावरण और अत्याख्यानावरण कपायका उदय
दूर होकर सिर्फ संज्वछनत कपायका उदय रह गया उसो समय उसे र्षत्रयकी आ्राप्ति हुई और
बह संसारसे विरक्त हो मन-ही-मन एकान्तमें इस प्रकार विचार करने छगा ॥८॥
१ वणते क०, ख०, ग०, घ० ।
६ स्वागत ग० ।
३ पुष्यमू। हे पुष्ये। ४ पूर्ण । ५ अर्थकामी न भवत: 1
User Reviews
No Reviews | Add Yours...