गीतापरिशीलन | Geeta Parishilan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
560
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दु
श्छोकसख्या विषय
< साधुके मनमेंसे भीगाभिलापाको हटाकर उसे साघुल्मे प्रतिष्ठित
रखना, तथा अस्ाप्ठुके मनमें भोगोका अभिनन््दन करके उसके
मनको पतित बनाना, ये दोनों आत्माके स्वभाव है ।
९--१० यंदि मनुष्य अपने इन्द्रियातीत कमबन्धनातीत तथा जन्मात्तीत
अनासक्तरूपको पहचान जाय तो उसकी पुनर्जन्मकी आन्ति
छूट जाय।
११-१२ अनासक्तिरूपी मुक्ति तथा आसक्तिरूपी बन्धन दोनों आत्माके
मार्ग हें। अनासक्त कर्मसे “ मुक्ति ” तथा आसक्त कर्मसे बन्धन,?
कर्मके साथ ही साथ मिलता है ।
१३ अकर्ता आत्मतक्त्व ज्ञानी मनुष्यमें चार स्वभाव लेकर प्रकट होता है।
१४ यदि मनुष्य यह पहचान ले कि न तो आत्माकी कर्मेबन्धन लगता
है तथा न उसे कर्मफठकी अभिलापा है, फिर भी वह निरन्तर
कर्मरत है, तो वह कर्मवन्धनमें न फसे ।
१५ अर्जुनकों भूतकाढके मुक्तिप्रेमी नानियोंके समान अनासक्त होकर
कर्म करके मुक्तिप्रेमी होनेका परिचय देना चाहिये ।
१६-६७ यदि मनुष्य कर्म अकर्मकी परिभाषाकों समझ जाय तो उसे कभी
कृमंबन्धन प्राप्त न हो।
१८ अपने ज्ञानपूर्वक कर्ममें अपना अकर्तापन देखनेवाला, तथा कर्म-
त्यागकी आन्तिको “आन्तकर्म ? या विकर्म ? समझनेवाला पुरुष
बुद्धिमान है, योगी है, तथा कमोमें सपूर्णता लानेवाला है!
१९-२४ ज्ञानियोंके इन्द्रियातीत कर्मचन्धनरहित मुक्त्यानन्दभोगी 'यश्ञमय
जीवन ? का वर्णन ।
२५-३० अनासक्ति रूपी सञ् यज्ञसे रहित अज्ञानियोंकी कास्पित यज्ञ
नामक क्रियाओंका पर्णन ।
३१ १९ शछो से २४ तक वर्णित यश को अपनाओ तथा २५ ःहो...
से ३० तक वर्णित यज्ञाभासोंको त्यागो ।
३२ नामघारी यज्ञ बहुतसे है।वे सब कर्मबनन्धनसे उत्पन्न होते है।
३३ ड्रव्यमय यज्ञोवाले जीवनसे शानयरामय जीवन श्रेष्ठ है
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