गीतापरिशीलन | Geeta Parishilan

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Geeta Parishilan by रामावतार विद्याभास्कर - Ramavatar Vidhyabhaskar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दु श्छोकसख्या विषय < साधुके मनमेंसे भीगाभिलापाको हटाकर उसे साघुल्मे प्रतिष्ठित रखना, तथा अस्ाप्ठुके मनमें भोगोका अभिनन्‍्दन करके उसके मनको पतित बनाना, ये दोनों आत्माके स्वभाव है । ९--१० यंदि मनुष्य अपने इन्द्रियातीत कमबन्धनातीत तथा जन्मात्तीत अनासक्तरूपको पहचान जाय तो उसकी पुनर्जन्मकी आन्ति छूट जाय। ११-१२ अनासक्तिरूपी मुक्ति तथा आसक्तिरूपी बन्धन दोनों आत्माके मार्ग हें। अनासक्त कर्मसे “ मुक्ति ” तथा आसक्त कर्मसे बन्धन,? कर्मके साथ ही साथ मिलता है । १३ अकर्ता आत्मतक्त्व ज्ञानी मनुष्यमें चार स्वभाव लेकर प्रकट होता है। १४ यदि मनुष्य यह पहचान ले कि न तो आत्माकी कर्मेबन्धन लगता है तथा न उसे कर्मफठकी अभिलापा है, फिर भी वह निरन्तर कर्मरत है, तो वह कर्मवन्धनमें न फसे । १५ अर्जुनकों भूतकाढके मुक्तिप्रेमी नानियोंके समान अनासक्त होकर कर्म करके मुक्तिप्रेमी होनेका परिचय देना चाहिये । १६-६७ यदि मनुष्य कर्म अकर्मकी परिभाषाकों समझ जाय तो उसे कभी कृमंबन्धन प्राप्त न हो। १८ अपने ज्ञानपूर्वक कर्ममें अपना अकर्तापन देखनेवाला, तथा कर्म- त्यागकी आन्तिको “आन्तकर्म ? या विकर्म ? समझनेवाला पुरुष बुद्धिमान है, योगी है, तथा कमोमें सपूर्णता लानेवाला है! १९-२४ ज्ञानियोंके इन्द्रियातीत कर्मचन्धनरहित मुक्त्यानन्दभोगी 'यश्ञमय जीवन ? का वर्णन । २५-३० अनासक्ति रूपी सञ् यज्ञसे रहित अज्ञानियोंकी कास्पित यज्ञ नामक क्रियाओंका पर्णन । ३१ १९ शछो से २४ तक वर्णित यश को अपनाओ तथा २५ ःहो... से ३० तक वर्णित यज्ञाभासोंको त्यागो । ३२ नामघारी यज्ञ बहुतसे है।वे सब कर्मबनन्धनसे उत्पन्न होते है। ३३ ड्रव्यमय यज्ञोवाले जीवनसे शानयरामय जीवन श्रेष्ठ है




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